कैसी है मजबूरियाँ
नजदीकी बन गई दूरियाँ
न जाने किसकी नजर लगी
अजनबी हो गई दुनियां
धर कर गई एक अंजान बीमारी
सबकी हो गई हालात पतली
हर मन में बैठा डर
जो आदमी को कर रहा आदमी से दूर
हवा के रास्ते करती प्रवेश
और हवा को ही कर देती अवरुद्ध
सांस लेना मुश्किल कर देती
सीधे गले और फेफड़ों पर करती प्रहार
जानलेवा बन जाती
सब एक - दूसरे को सचेत कर रहें
मुख पर मास्क लगा रहे
दो गज दुरी भी रख रहे
तब भी कुछ फर्क नहीं पड़ रहा
यह तो फैलता ही जा रहा ।
अब तो बहुत हो चुका
कब इस बीमारी से निजात मिले
कब यह मास्क हटे और खिलखिलाते चेहरे दिखे
कब अपने अपनों के गले मिले
कब हाथ में हाथ ले बातें हो
कब बच्चों से पाठशाला गुलजार हो
कब बाजार पटे रहे
कब ग्राहक निश्चिंत हो घूमें
कब दोस्तों और रिश्तेदारों संग पार्टियाँ और जश्न हो
कब सिनेमा हाॅल सीटियों से गूंजे
कब युवा जिम में अपना पसीना बहाए
कब समुंदर किनारे युगल हाथों में हाथ डाल घूमें
ऐसा बहुत कुछ जो बंद है
सब बीमारी की गुलामी के डर में है
कब निजात हो
कब जिंदगी पहले जैसी पटरी पर लौटे
बस अब बडी शिद्दत से इंतजार है
No comments:
Post a Comment