Tuesday, 21 December 2021

साइकल का जमाना कहाँ रहा

यह साईकिल की सवारी
है मुझे बहुत प्यारी
जब हिचकोले खाता हूँ
टेढे मेढे रास्ते पर चढ जाता हूँ
तब ऐसा लगता है
मैंने फतह हासिल कर ली
यह मंजिल पर पहुंचाती है
न कोई किराया न खर्चा
जब मन किया बैठ लिया
जहाँ चाहे खडा कर दिया
किसी को आगे तो किसी को पीछे बिठा लिया
पगडंडी और मेडो पर भी यह चल सकती है
यह मोटरसाइकिल जैसे फर्राटे तो नहीं भरती
अपनी ही चाल में मस्ती से चलती है
प्रदूषण का भी खतरा नहीं
यह जहरीला धुआं नहीं छोड़ती
इसे पेट्रोल- डीजल की जरूरत नहीं
मंहगाई की मार से यह परे हैं
यह तो मेरी साथी है
जब से होश संभाला
अपने साथ ही पाया
बचपन , बुढापा और जवानी
सब इस पर ही काटे
कभी-कभी मरम्मत करा ली
टायर में हवा भर ली
बस और इससे ज्यादा कुछ नहीं
अब तो मेरे जैसे यह भी बूढी हो रही
उसमें भी जंग लग रही
कल - पुर्जे ढीले पर रहें
आखिर कब तक साथ निभाएगी
अब तो यह एक कोने में पडी है
जैसे मैं एक खाट पर
नए जमाने को यह ज्यादा नहीं भाती है
हमारा जमाना धीमी गति वाला था
नया तो तेज दौड़ लगाता हुआ
उनके पास तो फुरसत ही नहीं
आपस में बतियाने की
कुछ क्षण सुस्ताने की
बस भागे जा रहे हैं
एक ही सीध में
सपाट - समतल सडक पर
आज की जिंदगी तो मोटरसाइकिल जैसी हो गई है
साइकल का जमाना कहाँ रहा

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