Wednesday, 26 January 2022

परमानंद का आनंद

नहीं भूली हूँ अपनी जिंदगी का वह पहला मकान
पिताजी का खरीदा हुआ घर 
वह छोटा था पर अपना था
वन रूम किचन ही था
वह ह्दय में आज भी धर है
हंसते थे चहचहाते थे
झगड़ा- लडाई करते थे
मान - मनौवल करते थे
त्यौहार मनाते थे
घर छोटा सा था
पर उसका दिल बडा था
सब उसमें समा जाते थे
घर के सदस्य तो थे ही
दोस्तों- रिश्तेदारों का भी ठौर - ठिकाना 
वह भी गाहे - बगाहे आते थे
कुछ तो सुबह- शाम जमे रहते थे
कभी कोफ्त भी होती थी
पर न वो मानता था न हम मना करते थे
गद्दे डाल दिए जाते थे सोने के लिए 
सुबह उठकर उठते ही उठा उसको गैलरी में करीने से एक के ऊपर एक लगाओ
कोई प्राइवेसी नहीं 
टेलीविजन चालू रहा तो कुछ दरवाजे पर खडे
दरवाजा बंद तो खिड़की से झांक ती ऑखें 
हर कोई घर में घुसा जा रहा है
दरवाजा एक बार सुबह खुला तो रात को ही बंद
पडोसी तो घरवालों से बढ़कर 
हर बात में टोकमटाकी 
बच्चों को पालना नहीं पडा
बच्चे अपने आप ही पल बढ गए
एक नहीं कई गार्जियन थे
सब की निगाह रहती थी
सगा कौन और पराया कौन
यह तो बच्चा जब तक बडा नहीं हो जाता था
जानता ही नहीं था
साथ में जमीन पर बैठकर खाना
साथ में खेलना
किसी के घर झगड़ा तो गाली खाने  पर भी छुड़ाने जाना 
किसके बच्चे कैसे 
पढाई में  या और चीजें में 
हर बात की खबर 
दीवारों के कान होते हैं यह मुहावरा नहीं 
सच में होता था
शादी - ब्याह  , हारी - बीमारी में सबका सहयोग 
कब मन मुटाव हुआ कब खत्म हुआ 
पता ही नहीं चलता था
यहाँ तक कि गली भी अपनी
सडक भी अपने बाप की लगती थी
निसंकोच  चलते थे बिना भय के
हर दुकानदार पहचानता था
फलां का फलां 
आज तो बडा घर 
घर में ही सब अजनबी 
आने और जाने की सूचना दो
बडा औपचारिक लगता है
पर पहले वाली बात तो रही नहीं 
परमानंद का आनंद हर जगह नहीं 

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