तनाव और डिप्रेशन
चाहे जो कह लो
आज का सच यही है
हर व्यक्ति इसके साथ जीता है
बच्चों से लेकर युवा और बुढे तक
इसका उत्तरदायी भी कहीं हद तक यह समाज है
जब घटना घट जाती है
तब वह अफसोस जताता है
व्यक्ति अकेला हो गया है
वह लडता रहता है
अपने आप से
किसी को कह नहीं पाता
लोग ऊंगली उठाने के लिए
दोषारोपण करने के लिए
मजाक बनाने के लिए
हंसने के लिए
किसी भी वक्त तैयार बैठे रहते हैं
ऊल जुलूल कहानियां बनाना
बिना किसी की पीडा को समझे
यह समाज जब तक देखने का नजरिया नहीं बदलेगा
आत्महत्या होती रहेगी
नर्सरी के बच्चे का भी मार्क्स पूछना
एक युवा बेकार है
उससे उसकी नौकरी का पूछना
बच्चा नहीं तो वह पूछना
डिवोर्स हुआ तो वह पूछना
सबके जीवन में ताक झांक करना
इसी वजह से व्यक्ति दिखाता कुछ है
होता कुछ है
सहानुभूति के नाम पर दर्द पर नमक छिड़कना
इतना संघर्ष
इतनी सफलता
तब भी इतना तनाव
रिश्तों में भी वह बात नहीं
सब कुछ दिखावटी और बनावटी
झूठ का पुलिंदा ओढ रखा है
नैतिकता रही नहीं
अपनी समस्या तो है ही
समस्या खडे करने वाले भी है
एक जिंदादिल
एक संघर्षशील
एक कामयाब
सुशांत सिंह राजपूत
जब ऐसा कदम उठा सकता है
तब सामान्य की क्या बिसात
कितनी पीड़ा
कितना दर्द
समेटे हुए
जब असह्य
तब आत्महत्या
यह किसी भी हाल में जायज नहीं
जीने का अधिकार सबको है
एक जरा सी चोट लग जाती है
तब हम न जाने कितनी बार मरहम लगाते हैं
दिल जब टूटता है
तब उस पर भी मरहम लगाना चाहिए
और समाज की यह बहुत बडी भूमिका होनी चाहिए
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