इसकी अपनी पहचान है
फर्श से अर्श तक खडे करने का माद्दा रखती है
हाँ एक चीज खलती है अपनापन
सब कुछ औपचारिक
एक ही सोसायटी में रहते हुए सालों साल बीत जाते हैं
किसी को किसी के बारे में पता नहीं
बोलना तो दूर मुस्कान भी कभी-कभी नहीं
यह भीड का अकेलापन खलता है
क्यों कोई किसी के नजदीक नहीं आना चाहता
दूरी बनाएं रखते हैं
हर कोई अपने में बिजी
रात - दिन जागने और दौड़ने वाली मुंबई
ऐसा तो नहीं भावना शून्य हो गई है
ऐसा भी हो कि प्राइवेसी चाहते हो
दखलंदाजी पसंद नहीं
दीवाली और होली
यहाँ भी मनती है
धूमधाम से
मन रिक्त
उसी तरह से राष्ट्रीय त्योहार मना लेते हैं
झंडा फडका कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं
सामाजिक प्राणी हैं हम
समाज बिना हमारा वजूद कहाँ
तब थोडा सा सामाजिक बन जाया जाएं।
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