जमीन ही नहीं बहुत कुछ बेचा है
पुरखों की धरोहर बेची है
किसी की मेहनत बेची है
किसी की खुशियाँ बेची है
मिट्टी की खुशबू बेची है
यह जमीन ऐसे तो नहीं बनी थी
न जाने कितनों ने खून पसीना बसाया था
घर की रोजी रोटी थी
अभिमान थी
जब फसल लहलहाती थी तब दिल भी लहलहाता था
पशु-पक्षियों का भी आसरा था
संयुक्त परिवार टूट गए
हम आ गए शहर में
यहाँ फ्लैट खरीदा
बच्चों को पढाया लिखाया
अब वो भी काबिल बन गए
गाँव की जमीन का क्या करना है
यही कहीं फार्म हाउस बनाएँगे
छुट्टियों में मजा करने जाएंगे
जमीन का झंझट छोड़ो
किसे खेती करना है
सही भी तो है बात उनकी
अभी बेच देते हैं
बंटवारा कर देते हैं पैसों का
जिस दिन बेचा
उस दिन ऑख भरभरा आई थी
मानो बाबा आकर कह रहे हो
बचवा यह क्या कर रहे हो
अपनी माँ को नीलाम कर रहे हो
धरती हमारी माता है
न जाने कितनी पीढियों का लालन-पालन किया है
इसी के भरोसे शादी - ब्याह, मरनी- जीनी , कार - परोज
आज पैसा आ गया है इसलिए उसे बेच रहे हो
पैसा है फिर भी पैसे के लिए
कितना लालच समा गया है
जमीन की सुरक्षा के लिए लडाई लडी है
भाला - डंडे चलाए हैं
पटीदारो से लोहा लिया है
अभाव भले हुआ हो कभी जमीन के टुकड़े को भी बेचने की नहीं सोची
आज सब खत्म
जमीन के साथ ही हमसे भी तो नाता खत्म
अब कोई नहीं कहेगा
हमारे बाप - दादा की जमीन है ।
No comments:
Post a Comment