गुड्डे-गुड़िया की शादी रचाते थे
बारात निकालते थे
घराती - बराती बनते थे
मिठाई - नमकीन बांटकर खाते थे
तब यह कितना मजेदार लगता था
बडे होने पर पता चला
शादी - ब्याह गुड्डे-गुड़िया का खेल नहीं
इसे चलाना पडता है
निभाना पडता है
मशक्कत करनी पडती है गृहस्थी चलाने में
परिवार , बच्चे और न जाने कितनी जिम्मेदारी
यह एक खेल नहीं संस्था है
सामाजिक और भावनिक सुरक्षा है
एक भविष्य तैयार करना
समाज और व्यक्ति निर्माण करना
सब इससे जुड़ी है
इसे इतना आसानी से नहीं लेना है
अगर मानसिक रूप से तैयार हो
अगर सक्षम हो
तब ही स्वीकार करें
अन्यथा स्वतंत्र रहे ।
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