जिंदगी पर खर्च करते रहें
कर्ज बढता गया
जिंदगी को संवारने- सुधारने में
कर्ज पैसों का नहीं था
वह तो कैसे भी गुजार लिया
लालच भी नहीं फिजूलखर्ची भी नहीं
संतोष ही धन माना
उन्नति भी हुई
ऐसा नहीं कि जहाँ थे वहीं हैं
सफर में मंजिल तक पहुंचे भी
न जाने क्यों लगता
यह सफर मेरा अकेले का नहीं
यह मेरी उपलब्धि नहीं
कारण समझ आया
कर्ज एहसानों का था
उस एहसान का एहसास
अब भी जेहन में
पैसे का कर्ज तो चुक जाता है ब्याज सहित
एहसानों का कैसे चुकाये
जिदंगी पर खर्च करते करते जिंदगी ही खर्च हो गयी
अब जो बाकी बची
वह यह सोचते
कैसे और कहाँ कटी
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