वह मेरी प्यारी थी
मुझसे छोटी थी
करतब मे बडी थी
थोड़ी नकचढी थी
जिद्दी थी
आ जाती जिद पर तो जो ठान लेती
वह करके ही छोड़ती
दिन - रात किताबों में रहती
अव्वल न॔बर लाती
हर चीज करीने से रखना
हर चीज करके ही रहना
जमाने से दो कदम आगे रहना
यह उसकी फितरत थी
सुन्दर लंबे लंबे घनियारे केश
इस्तरी हुआ कपडा
भले उसके लिए कितनी भी मेहनत
अपने को कभी कम नहीं आंकती थी
तभी तो उसकी सखी बंगलों वाली थी
आत्मसम्मान की प्रतिमूर्ति
नहीं किसी से डरना न झिझकना
हर काम अव्वल दर्जे का
भोजन हो या सिलाई - कढाई
मैं तो उसको कभी समझ न पाई
थोड़ी ईर्ष्या थी मैं उसके जैसे क्यों न बन पाई
मन का प्रेम कभी प्रकट न कर पाई
स्वाभाविक था झगड़ा - लडाई
बडा होने का रौब - धौंस
बहने थी जाई
अहमियत उसकी उसके जाने के बाद समझ आई
वह होती तो मैं इस तरह अकेले न होती
उससे अच्छा कौन समझता
कौन साथ निभाता
हर अवसर पर अकेला महसूस करती हूँ
तुम्हारी कमी हमेशा खलती है
भेंट चढ गई
तुम विवाह की बलिवेदी पर
समाज की कुरीतियों पर
हम खुल कर नाम भी न ले सकें
बचते रहें समाज के तानों से
इतनी कमजोर कैसे पड गई मेरी बहना
क्यों नहीं विरोध कर डाला
फिर वह होता कोई कितना प्यारा
इतनी विद्रोही
इतनी जुझारू
जीवन से हार मान गई
हम सबको रोता - बिलखता छोड चली गई
इंदु तो चंद्रमा का भी एक नाम है
वह ऑखों से ओझल होता है फिर आ जाता है
काले काले बादलों से
गहरे अंधेरे से बाहर निकल आता है
पर तुम ऐसा न कर पाई
हमें गहरे अंधेरे में छोड़ गई
न शिकवा न शिकायत
हमें कटघरे में खड़ा कर गई
पल पल सोचने पर मजबूर
कहीं इसका कारण हम तो नहीं
होनी को जो मंजूर वह स्वीकार
पर यहाँ होनी नहीं कारण हम
क्या हुआ था तुम्हारे स्वभाव को
अर्पण नहीं किया होता स्वयं को आग में
जिद पर उतर आई होती
सक्षम थी कुछ भी कर सकती थी
फिर यह रास्ता क्यों चुना
क्यों कमजोर पड गई
सपनों की आहुति दे दी
स्वयं चली गई
हमारे सामने प्रश्न चिन्ह छोड़ गई
आज होती तब हालात कुछ और ही होते
दिल मे कसक होती है
काश । तुम होती
अपनी चमक बिखेरती
पर तुम तो बादलों में इस तरह समाई
फिर कभी नजर न आई
हमें अकेला कर गई
स्वयं तो चली गई
हमें जीते जी मार गई
सिसकियाँ हमारी दब कर रह गई
आज भी वह सालती है
जब जब याद तुम्हारी आती है
खोया है हमने अपने को
यह दर्द बेगाना कैसे जानेगा
मिल बाट कर खाया था
अब वह बांटने वाला ही नहीं रहा
सब अकेले मुझे दे गया
ईश्वर की भी पूजा करना छोड़ा था
शादी बारात को फिर नहीं देखना चाहा था
तुम्हारे जाने के बाद मन को न जाने कितनी बार संभाला
बार-बार समझाया था
तब जाकर यह घाव कुछ भरा था
पर क्या सचमुच यह भरा क्या ??
अगर भरा होता तो बार-बार हरा क्यों हो जाता
स्वप्न में तुम आई थी
मैं आ रही हूँ
मेरे साथ ही एक और शख्स को एक ही दिन
वह था अजीत पांडे
ठीक नौ महीने बाद ही जन्म हुआ था मेरे बेटे का
मन को सुकून मिला था
अपने ही घर लौट आई है
अब आत्मा नहीं भटकेगी
अपने ही लोगों के बीच रहेंगी
जब जब बेटे को देखती हूँ
तुम्हारी याद आती है
वह भी जिद्दी , कमजोर पर निराश न होनेवाला
जो न सोचा वह भी कर डालता है
आश्चर्य में डाल देता है
अब पुनर्जन्म की बात सच है या नहीं
पर उस दिन के बाद तुम कभी नहीं आई
सच हो तब भी
पर तुम होती तो बात कुछ और होती
मैं घमंड में रहती
क्योंकि तुम मुझे कभी अकेला नहीं महसूस होने देती
न कोई की हिम्मत होती मेरा मजाक उड़ाने की
तुम तो मुझे आदर्श मानती थी
तुम्हारा आखिरी खत
कि आपकी चिंता रहती है हमेशा
तब क्यों छोड़ गई
ईश्वर ने तो नहीं बुलाया था
तुम नाराज हो गई थी
वक्त सबसे बडा मरहम
पर कुछ घाव कभी नहीं भरते
समय समय पर टीस देते रहते हैं
यह वैसा ही घाव है
जो तुम हम सबको दे गई
भूल जाओ
भूलना इतना आसान तो नहीं होता
एक जिंदगी में तो यह संभव नहीं ..।।
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