जो पहली बारिश में ही घुल जाऊं
मैं तो वह लकड़ी की कश्ती हूँ
जो ना जाने कितने बारिशों का सामना करती रही हूँ
न जाने कितने लहरों के हिचकोलो को सहती रही हूँ
न जाने कितनी बार मझधार में फस बाहर निकली हूँ
मैं कागज जैसे नाजुक नहीं लोहे सी मजबूत हूँ
लोहे में भी जंग लग जाती है पर मुझमें नहीं
हाँ घिस जरूर गई हूँ
थोड़ा समय का असर दिखने लगा है
तब भी समुंदर में उतर ही जाती हूँ
अपने नाविक का साथ निभाती हूँ
बनी मैं लकडी की जिगरा फौलाद सा
नहीं डर नहीं घबराहट
हर लहर से दोस्ती
हर मौज में मौज
बेकार बैठ रहना भाता नहीं
किनारों पर कुछ क्षण विश्राम कर
उतर जाती हूँ मांझी संग मझधार में
जब तक रहना तब तक करना
जीवन की रौ में बहना
यही है दास्ताँ हमारी
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