क्या हम नीरस नहीं हो रहे है
हम दिखावा कितना कर रहे हैं
जो हैं वह नहीं दिखाते
जो नहीं हैं उस रूप में अपने को पेश करते
एक मुखौटा ओढ रखा है हमने
बस अभिनय कर रहे हैं
तोल - मोल कर बोलना
हंसना - रोना - गुस्सा
कब - कहाँ क्या करना है सबका हिसाब
खुल कर मिलना नहीं
हर वक्त एक अनुशासन में रहना
दोहरी जिंदगी जीता हुआ आदमी
भावना मर रही
बंजर हुआ जा रहा
पुतला मात्र दिख रहा
सब कुछ संचालित
स्वाभाविक वृत्तिया गुम
उसी में गुम होता आदमी
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