फिक्र करते रहे
होनी को फिर भी होना है
उसे टाला नहीं जा सकता
कहने को तो बहुत मजबूत है इंसान
वास्तविकता तो यह है
बहुत कमजोर है इंसान
बहुत मजबूर है
जिसके हाथ में कुछ नहीं
कुछ भी तो नहीं
सब कर्म धरा का धरा रह जाता है
जब भाग्य का डंडा पड़ता है
उसने तो भाग्य विधाता को भी नहीं बख्शा
उनको भी भोगना पड़ा
वह उसे अपने वश में न कर पाए
कभी-कभार कुछ ऐसा घटता है
लगता है सबसे विरक्त हो लें
यह सपने यह इच्छा सब छोड़ दें
हो नहीं पाता यह भी
यहाँ भी तो मजबूरी है
माटी का खिलौना
कब टूट जाए
सपनों का महल
कब ढह जाए
अंधेरा कब छा जाए
सांस कब साथ छोड़ जाए
सब कुछ अनिश्चित
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