नहीं कुछ नहीं लिखना है
आज लेखनी को विराम
सोचते है हर दिन
होता नहीं है
कुछ न कुछ मोबाइल देखते - देखते विचार जेहन में आ ही जाता है
अब आया है तो उनको समक्ष लाना है
भाव व्यक्त करना है
अपने आप उंगलियाँ टिपटिपाने लगती है
अक्षर उकेरने लगते हैं
भाव आते रहते हैं
शब्द और वाक्य बनते रहते हैं
यह सब स्वाभाविक होता है
कोई प्रयास नहीं
आदत जो है लिखने की
खुराक है वह एक तरह से
आदत कहाँ जल्दी छूटती है
दिल भी कहाँ मानता है
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