जो बैठे - बैठे घर - गृहस्थी की बातें करता
सुख - दुख मे भी शामिल होता
काश वह खारी - बिस्कुट वाला होता
जो बड़े से बक्से में खारी , टोस्ट, नान खटाई भरा होता
जब अपना पिटारा खोलता बच्चे इर्द-गिर्द झांकते रहते
काश वह कपड़े वाला होता
तरह-तरह के सबके लिए
अपने कपड़े के गठ्ठर फैला बैठता
काश वह भाजी वाली होती
भाजी की टोकरी ले घर-घर घूमती
चिल्लाती तो सब उसके सुर में सुर मिलाते
काश वह पोस्ट मैन चाचा होते
रिजल्ट लेकिन आते तो सब उत्सुक रहते जानने को
ऐसे न जाने कितने थे
जिनसे अपनापन था
बनिया की तो हर दीवाली मिठाई के साथ कैलेंडर होता था
हर बार मोलभाव नहीं होता
बच्चों को तो कुछ न कुछ मुफ्त में मिल जाता
कभी बिस्कुट तो कभी कटोरी में दूध
समय था सबके पास
आते थे सुस्ताते भी थे
हक से मांग पानी पीते थे
टेलीफोन वाला
मिस्री - मैकेनिक
सफाई वाला
कपड़े धोने वाला
बाल काटने वाला
दर्जी , दरबान
सब थे हमारे पहरेदार
न जाने ऐसे कितने वाला होते थे
जिनसे एक रिश्ता सा होता था
अब तो वह बात नहीं रही
वे लोग नहीं रहे
वाला बदले माॅल आए
भीड़ में सब कहीं खो गए
न वे रहें
न हम भी वह रहें
न किसी पर विश्वास रहा
बस उनकी याद ही रहीं
जो गाहे - बगाहे आ जाती है
अब तो पानी पिलाने में भी डर
बात से भी डर
हर व्यक्ति संदेह के घेरे में
रेल के सफर में भी दोस्ती हो जाती थी
अब तो पड़ोसी से भी दूर हैं
सच में जमाना बदल गया
बहुत कुछ साथ ले गया
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