जहाँ कभी रिश्ते बस्ते थे
हंसते - खिलखिलाते थे
छत पर चढ़ दूर से बतियाते थे
वह पड़ोसी नहीं होता था
अपना होता था
हर सुख दुख में काम आता था
हमेशा प्यार ही बरसता हो ऐसा भी न था
लड़ाई भी होती रहती थी
मनमुटाव बस कुछ समय का
बिना बोले तो चैन भी न आता था
बच्चों पर तो सबका हक बनता था
बेटियां भी सबकी होती थी
दामाद तो पूरे मोहल्ले का होता था
तरक्की होती गई
रिश्ते संकीर्ण होते गए
विकास की आंधी आई
सब छिन्न भिन्न कर गई
अब तो कोई किसको नहीं जानता
बात करना तो दूर
मुस्कान भी मुश्किल
तीज-त्यौहार पर भी सब सिमटे हैं अपने में
एक जीवंत गली - रास्तें अब सुन्न पड़े हैं
अब वह बात नहीं रही
बदलाव की आंधी ऐसी चली
सबको अपने साथ समेट ले गई
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