मन को पाषाण बना डाला
न जाने कितना टूटा - चटका
हरा - भरा मन सूख कर ठूंठ रह गया
न बहती अब प्रेम की रसधार
वक्त के ठोकरों ने इतना मारा
अब बस शून्य ही बचा जीवन
अब तो लगता है
यह संसार क्या है
क्यों जकड़ा है इसने हमको
किस जंजीर में बंधे हैं हम
अब भी कुछ बाकी है
सोचते - सोचते दिन बीता
मन फिर भी रहा रीता
नहीं मिला जवाब
उत्तर भी हो गया निरूत्तर
खेल जो शुरु किया
नहीं है उसका अंत
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