मंहगाई की मार पड़ी है सब पर भारी, क्या अमीर क्या गरीब सब है बेहाल,
सोचा था सरकार बदलेगी, अच्छे दिन आएंगे, पर कहाँ ?
कांदा-बटाटा और टमाटर रुला रहे है , हरी-हरी सब्जिया देखो संतोष करो,
फल की तो बात ही छोड़ो, उसकी औकात नहीं।
यात्र की तो भूल ही जाओ, किराया बढ गया दुगना,
रही-सही कसर पूरी दी मौसम की बेईमानी ने,
टकटकी लगाये सब बैठे है, क्या किसाम, क्या व्यापारी ?
आम आदमी तो उलझा हुआ है इन उलझनों में,
सोचने की फुर्सत नहीं उसके पास केवल दाल-रोटी के सिवाए,
इंतज़ार है तो केवल अच्छे दिन आने का,
बरसात, भगवान और सरकार,
इनपर निर्भर है आम इंसान।
सोचा था सरकार बदलेगी, अच्छे दिन आएंगे, पर कहाँ ?
कांदा-बटाटा और टमाटर रुला रहे है , हरी-हरी सब्जिया देखो संतोष करो,
फल की तो बात ही छोड़ो, उसकी औकात नहीं।
यात्र की तो भूल ही जाओ, किराया बढ गया दुगना,
रही-सही कसर पूरी दी मौसम की बेईमानी ने,
टकटकी लगाये सब बैठे है, क्या किसाम, क्या व्यापारी ?
आम आदमी तो उलझा हुआ है इन उलझनों में,
सोचने की फुर्सत नहीं उसके पास केवल दाल-रोटी के सिवाए,
इंतज़ार है तो केवल अच्छे दिन आने का,
बरसात, भगवान और सरकार,
इनपर निर्भर है आम इंसान।
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