Sunday, 6 November 2016

स्मृति और विस्मृति : जीवन के भाग

कितना भी भूलाने की कोशिश करो
पुरानी स्मृतियॉ पीछा नहीं छोडती
कहीं न कहीं सालती रहती है
दुखी करती रहती है ,पीडित करती रहती है
पुुराने यादों के भँवर में उलझाती रहती है
नई खुशी दस्तक देना शुरू करती है
कि पुराना दुख याद कर मन उदास हो जाता है
खुशी उसके आगे फीकी पड जाती है
ऐसा क्यों हुआ ????
हमारे साथ ही पर कोई चारा भी नहीं
यह तो भाग्य का खेल है
जो हुआ वह तो बदला नहीं जा सकता
समय भी बीत गया
बहुत कुछ बदल गया
पर स्मृतियॉ अभी भी दंश मार रही है
और अगर भूलना चाहे
तो लोग भूलने नहीं देते जिक्र कर
पता नहीं कितने उत्सुक रहते हैं
व्यक्तिगत बातें जानने के लिए
एक तो स्मृति और दूसरा समाज
पीछा छोडने को तैयार नहीं
इससे तो तब छुटकारा मिलता है
जब विस्मृति का दौर शुरू होता है
यह भी ईश्वर की देन है
नहीं तो व्यक्ति पागल हो जाता
पर उम्र बढने के साथ स्मरणशक्ति भी क्षीण होने लगती एक समय तो ऐसा भी आता है कि कुछ भी याद नहीं रहता
समय ही सभी मर्जों की दवा है
अगर स्मृति ही रहती और विस्मृति नहीं तो जीवन में सांमजस्य नहीं हो पाता़
जीना भी मुश्किल हो जाता
तभी तो वृद्धावस्था में व्यक्ति  बच्चों जैसा हो जाता है
न सुन पाता है बराबर और न सोच पाता है
याद रखने का तो सवाल ही नहीं उठता
यह ईश्वर का दिया हुआ वरदान ही समझना चाहिए
ताकि धीरे- धीरे व्यक्ति सबसे मुक्त हो महाप्रयाण की तरफ प्रस्थान करे

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