Sunday, 28 May 2017

मैं कहॉ जाऊ

मैं महानगर में रहती हूँ
जंगल छोड यहॉ आई और यही की रह गई
पहले - पहल तो सब अंजान लगा
पर बाद में यही मुझे जान से भी प्यारा लगने लगा
झोपडपट्टियॉ ,गंदे नाले ,धुऑ उडाती गाडियॉ
सबसे घबराहट होती थी
कहॉ जंगल की स्वच्छ हवा ,साथी ,मनमौज
और कहॉ यह मुंबई
पर नाम सुना था तो खींची चली आई
बहुत ढूढते - ढढते सडक के किनारे एक विशाल पेड पर ठिकाना मिला
यहॉ मुझे बहुत से साथी भी मिले
मेरे बच्चों को भी छत मिली
हमारा परिवार मजे से रहता था
खाने - पीने की कमी न थी
बहुत से पूजा करने वाले पेड के नीचे चढा जाते थे
हमारा छोटा सा पेट भर जाता था
संग्रह  करना तो था नहीं
कभी- कभी आसपास की इमारतों और छत पर भी फेरी लगती थी
हॉ दीपावली मेम फटाके फूटने और मकर संक्रात में मांझे नें फंसने के डर से हम पेड की डालियों में दुबके रहते थे
कभी कोई थका हारा मुसाफिर या साईकल चालक भी आकर सुस्ताते थे
बेघर लोगों का तो यही पेड घरबार था
समय गुजारते थे ,बच्चों के झूले बॉध कर रखते थे
पर आज इस पेड पर आफत आई है
सुना है मेट्रों की लाईन बिछाने के लिए इसे काटा जाएगा
हम तो बेघरबार हो जाएगे
और हमारा संरक्षक यह पेड काट डाला जाएगा
इसने कितना कुछ किया है
यही पर निवास किया , बीट किया
एक डाली से दूयरे डाली पर उछले
गर्मी ,वर्षा या ठंड
हर समय हमारी मदद की
हमें अपने पत्तों में छिपाया
हम तो इसके लिए कुछ नहीं कर सकते
विकास करना है तो कुछ का बलिदान भी होगा
उसमें तो यह शामिल है
पर काटते समय यह ध्यान रखना
इसी ने लोगों को छाया दी है
प्राणवायु दी है
ज्यादा निर्मम मत होना
मैं तो छोटी सी
कुछ कर भी नहीं सकती
सिवाय अपने घरौंदे को कटते और उजडते देख

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