Monday, 26 June 2017

अजी सुनते हो

भारत में पति का नाम नहीं लिया जाता
वैसे जमाना बदल चुका है
अब नई आई बहुएं नाम लेकर बुलाती है जो घर के लोग को नागवार गुजरती है
उत्तर भारत में तो जेठ और उनके बच्चों का भी नाम नहीं लिया जाता
देवर और ननद को भी बाबु या बबुनी कह कर बुलाते हैं
यानि निष्कर्ष कि ससुराल पक्ष के लोग का नाम  नहीं लेना है
दो दशक पहले जब पढी- लिखी बहू कार्यवश भी नाम लेती थी तो सास का व्यंग्य होता था कि जैसे इनका बेटा हो
पति परमेश्वर माना जाता था
बाद में थोडा आधुनिक हुए तो नाम के आगे   जी  लगाने लगे    या
मेरे साहब या फिर उनका पद लगाकर डॉ साहब इत्यादि
नहीं तो पहले पप्पु के भइया
बचवा के पापा इत्यादि
कभी- कभी तो नाम का समझने और समझाने में न जाने कितना समय लग जाता था
इशारों में जो समझाया जाता था
उनका या इनका
ये या वे
उन्होंने पर किन्होने ???
यह बडा जटिल प्रश्न होता था
गलतफहमियॉ भी होती थी
एक समय का वाकया है चुनाव का कार्ड बन रहा था
एक औरत अपने श्वसुर जिनका नाम रामनाथ था
श्री रामनाथ लिखवाया
बाद में छप कर आया तो श्रीरामनाथ था
अब नाम तो होते हैं
श्रीराम ,श्रीदेवी तो कर्मचारी को क्या पता
बाद में नाम बदलवाना पडा
महाराष्ट्र में भी
अहो  याना
वहॉ तो नाम लेने की एक अलग प्रथा भी है
भारत के और प्रांतों का भी कमोबेश यही हाल है
नाम लेने से पति या पत्नी की आयु कम हो जाएगी
ऐसी भी मान्यता है
मुन्ना के पापा और बबली की मम्मी की बजाय उनका नाम रमेश या रीमा कितना शोभा देता है
माॉ- बाप कितने शौक से अपने बच्चे का नाम रखते हैं
कुछ प्रान्तों में तो शादी के बाद लडकी का नाम बदल जाता है
यह कहॉ तक तर्कसंगत है
नाम उस व्यक्ति की पहचान होता है
उसका असतित्व उससे होता है
नाम पहचान और बुलाने के लिए ही होता है
नाम का संबोधन व्यक्ति को अपनेपन से भर देता है
अपने लोगों का नाम लेने में सकुचाना नहीं
बल्कि गर्व करना चाहिए
और यह सबको स्वीकार करना चाहिए

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