Monday, 27 November 2017

मैं और मेरा साहित्य संसार

बात बचपन की है तब मन भी मनमानी करता था और मेरा मन तो किताबों और पढने में लगता ही नहीं था बल्कि और ज्यादा करता था .कहानी - उपन्यास तो मेरी जान थे
हॉ , कोर्स की किताबों को पढने में मेरा मन नहीं रमता था . और गणित से तो मैं थर- थर कांपती थी , भूगोल के नक्शे तो कभी मेरे मन को भाया ही नहीं.
हॉ , इतिहास अच्छा लगता था , भाषा तो जान थी पर व्याकरण को छोडकर
विज्ञान में भौतिक तो छोडा , रसायन थोडा पल्ले पडा और जीवशास्र ठीक था क्योंकि उसमें पेड- पौधे , पशु- पक्षी भी थे
घर में तो कोई कहानी की किताबें देने से रहा क्योंकि उनके लिए वह बेकार थी
समय और पैसे की बर्बादी
केवल स्कूूल की पुस्तके पढो और रात- दिन उसमें सर खपाओ
अच्छे अंकों से पास जो होना है
मेरे मन की मजबूरी थी कि मैं पाठ्यपुस्तक में कहानी की पुस्तक रख पढती थी
पढने का इतना नशा था कि जब शिक्षक गणित सिखाते थे तब भी छुपाकर पढती थी
इसका नतीजा यह हुआ कि मेरी गणित आज तक कमजोर है
कुछ बच्चों के घर बाल पाकेट बुक्स की पुस्तकें आती थी उनसे चिरौरी कर लेती थी और खत्म करके देती थी
वैसे भी हमारे समय टेलीविजन नहीं था
मनोरंजन का साधन खेलना या कहानी पढना - सुनना था . दादी तो कहनियॉ सुनाती ही थी .
कैसे ,बैसे कर मैट्रिक पास हो गई वह भी तृतीय श्रेणी
अब आगे क्या करेंगी , घरवालों को चिंता सता रही थी
कॉलेज में एडमिशन लेना था वह भी अंग्रेजी माध्यम
मेरे तो रोंगटे ही कॉप उठे पर बाबूजी थे कि वह अपनी बेटी को पढाना चाहते थे
मुझे तो आश्चर्य होता है बेटा - बेटी में भेद करने वालों में
मेरे बाबूजी ने जितनी मेहनत मुझे पढाने में की उतनी शायद बेटों में नहीं
यह पढाई का जिन्न मेरा पीछा नहीं छोडना चाहता था
बाबूजी के साथ गई तो रास्ते में सलाह दी आर्ट्स अच्छा रहेगा और वैसे भी आरामपसन्द है , ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडेगी
मैंने भी वही किया
परिणाम अपेक्षाकृत अच्छा रहा
मेरी रूची बढती गई और मैं अपने मुकाम पर पहुंचती गई
कहॉ फिसड्डी रहने वाली अब प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो रही थी
पोस्ट ग्रेजुएशन हुआ
नौकरी करने की भी संधि मिली
यह सब मन का नहीं था क्योंकि मैं महत्तकांक्षी नहीं थी
पर ऊपर वाले को कुछ और मंजूर था
वह न बोलनेवाली लडकी धडल्ले से बोलती है
तुंरत कविता , लेख और भाषण लिख सकती है
पर इन सबमें एक बात तो है वह
कहानी और उपन्यास पढने का शौक
सभी महान लेखकों और कवियों को पढ डाला
आज वह काम आ रहा है
मेरी सफलता के परचम फहरा रहा है
बाबूजी का वाक्य
यहॉ कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता
सागर भी लहरों के साथ पीछे अपनी छाप छोड जाता है फिर यह तो ज्ञान है
अंजाने में किया हुआ शौक आज मेरी रोजी - रोटी का जरिया है
धन्यवाद उन सभी रचनाकारों को जिनकी बदौलत एक साधारण व्यक्ति को भी जीने की नई दिशा मिली
      याद है वह कहानी बचपन में पढी थी
      याद है वह उपन्यास जो जवानी में पढी थी
      उमड - घूमड कर कहते जान पडते हैं
              उसने    कहा    था

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