Sunday, 1 July 2018

ऐ उम्र , कहाँ ले आई

याद आता है वह बचपन
जब ऐसे ही बिना कारण खिलखिलाकर हंसते थे
रोते भी थे तो जोर शोर से
सारा मुहल्ला सर पर उठा लेते
जिद मे पैर पटकते
खूब जोर से चिल्लाते
दिन भर खाते रहते
इधर-उधर भटकते
च्युइंगम चबा कर फुलाते
हर वक्त डाट पड़ती तब भी मुस्कराते
हर वक्त हंगामा

अब बडे हो गए
हंसना तो भूल ही गए
रोना भी चुप चुप
जिद पूरी करनेवाला कोई नहीं
खाना भी सीमित
घूमने की तो बात ही छोड़ दें
अब हंगामा नहीं शांति
डाट क्या बात भी लग जाती

मुखौटों मे छिपा रखा है
सब कुछ सोच समझ कर करना
वरना लोग क्या कहेंगे
हंसना ,रोना.खाना या घूमना
सब बनावटी लबादे ओढ़े
एक समय था जादू की कहानियों पर भी विश्वास
आज वह वक्त जब किसी पर नहीं विश्वास

उम्र का फलसफा है यह
बचपन पीछे छूट गया
हम बडे हो गए
बड़प्पन दिखाते दिखाते
हम स्वयं पीछे छूट गए
औपचारिक हो गए
असलियत उम्र ले गई

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