वह रिश्ता जो कभी टूटा नहीं
दूर था फिर भी जुड़ा रहा
मतभेद थे मनभेद थे
उस पर भी जरूर कोई बात थीं
वह क्या
यह आज तक न समझ आया
वक्त का तकाजा
कोई मजबूरी
क्यों बंधे रहे
उस बंधन में
जो दिखावट हो
एक नाटक हो
हम पात्रों की तरह अभिनय करते रहें
ताउम्र दिखावट का बाना पहने रहे
लोगों की खातिर
परिवार की खातिर
समाज की खातिर
बच्चों की खातिर
और अपने खातिर ??
खत्म करते रहे अपनी भावनाओं को
दूसरों की इच्छाओं पर नाचते रहे
सिसक सिसक कर घुट घुट कर जीते रहे
तब जाकर हम कही महान बने
घर परिवार और समाज की नजरों में
लोगों की नजरों में
हम तो कब का मर चुके
लोगों को लगता है जी रहे
जब तक स्वयं को मारेगे नहीं
जीने का तो सवाल ही नहीं उठता
अजब है न यह
मरकर जीवित रहना
यह तो सबके बस की बात नहीं
औरत ही ऐसा कर सकती है
बार बार मरती है
फिर फिर जी उठती है
तभी तो पूजा होती है
सम्मान दिया जाता है
शक्ति है
लक्ष्मी है
सरस्वती है
अन्नपूर्णा है
देवी है
जिसका त्याग की बलिवेदी पर बलिदान लिया जाता है
महान बना दिया जाता है
स्वयं को मिटाना
यह तो औरत ही कर सकती है
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Monday, 7 October 2019
यह तो औरत ही कर सकती है
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