दिल रो रहा है
कहीं न कहीं नाराज हैं
कहीं न कहीं लाचार है
कहीं न कहीं डरा हुआ है
कहीं न कहीं सहमा हुआ है
कहने को तो स्वतंत्र है
पर वास्तव में गुलाम है
कुछ कर नहीं पा रहा है
मजबूर हो गया है
समझ नहीं पा रहा
यह सब क्या हो रहा है
क्यों हो रहा है
हर रोज एक नई वारदात को अंजाम
आए दिन बलात्कार
नारी की अस्मिता पर प्रहार
कितना वहशीपन हुआ जा रहा इंसान
कानून ,सरकार सब हो गए हैं लाचार
ऑखों पर पट्टी बांध रखी है
जमीर मर गया है
ऐसा तो होता रहेगा
औरत है न वह
चाहे अनपढ़ हो या पढी लिखी
छोटे वस्त्र हो या पूरा शरीर ढका हो
दो महीने की मासूम हो
या फिर साठ साल की वृद्धा हो
है तो औरत ही
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Sunday, 1 December 2019
है तो औरत ही
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