Monday, 28 December 2020

पसंद - नापसंद

मेरी पसंद
पसंद यह शब्द तो मेरी लाइफ में बचा नहीं
दूसरों की पसंद याद है
अपनी पसंद की छोड़ो
वह हुई गुजरे जमाने की बात

तब भी पसंद को कहाँ थी अहमियत
हाँ लड - झगड़कर कुछ हो जाता पसंदीदा
समोसे और कचौरी चुपके से खा लेती
नखरे उठाने का जमाना नहीं
एक की पसंद वह सबकी पसंद

अब तो वह भी नहीं
पति की पसंद
बेटे - बेटी की पसंद
उनकी ख्वाहिशे को पूरा करना
उनका पसंदीदा भोजन बनाना
उनसे बचे तो खा लो
बेकार होने के डर से खा लो
कभी बासी कभी खुरचन कभी छोड़ा
मोह के मारे कुछ छोडा नहीं जाता
जोड जोड़ कर मिला है
तभी कुछ फेंका नहीं जाता
हंसी आती है स्वयं पर

मालकिन हूँ
न कोई रोकटोक
तब भी
होता है शायद
हमारे ही नहीं
अमूमन हर गृहिणी के साथ
गृहस्थी का भार उठाते उठाते
अपनी पसंद का तो छोड़ दो
वह तो अपने को ही भूल बैठती है

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