Wednesday, 13 October 2021

तब भी दीवाली आती थी

तब भी दीवाली आती थी
अब भी दीवाली आने वाली है
तब की दीवाली और अब की दीवाली में बहुत फर्क है
पन्द्रह दिन पहले से तैयारियां शुरू हो जाती थी
घर की साफ-सफाई में पूरा कुनबा लग जाता है
पीतल - तांबे के बर्तनों को चमकाया जाता था
घर में ही पकवान बनते थे
गुझिया,  लड्डू से लेकर सेव - चकली तक
सबकी भागीदारी रहती थी
बाजार हाट होता था
नए कपड़े खरीदे जाते थे
जो केवल साल में दो बार ही मयस्सर होते थे
दीया , तोरण  ,पटाखे
लक्ष्मी - गणेश की मूर्ति
हर दरवाजे पर कंदिल
हर खिडकी पर बल्बों की लडिया जगमगाती हुई
दरवाजे पर रंगोली निकालना
एक - दूसरे से कंपटीशन
किसकी ज्यादा अच्छी
सब घेरकर खडे
धनतेरस पर नए सामान खरीदना
सबके घर जाना
पकवानों का लेन देन करना
और जो यह सब होता था
वह खुशी से होता था
मन से होता था
आज भी यह सब होता है
पर वैसी बात नहीं
वह प्रेम 
वह अपनापन
वह उत्सुकता
वह उत्साह
सब देखते ही बनता था
आज तो लेने देने मे
एक - दूसरे के घर जाने में भी हिचक
आदमी व्यस्त हो गया है
छुट्टी घर पर बिताने की अपेक्षा रिसोर्ट में बिता रहा है
सब कुछ नमकीन- मिठाई रेडीमेड आ रहा है
उसमें उन हाथों की मिठास कहाॅ ?
कपडे तो हर समय खरीदे जा रहे हैं
तब वैसी उत्सुकता भी नहीं
सब नार्मल है सामान्य है
सब कुछ दिखता ठीक-ठाक है
पर कहीं कुछ गायब है
जिंदगी नार्मल  नहीं  है
वह बहुत हाय फाय हो गई है
हम एक-दूसरे से दूर हो गए हैं

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