नहीं देना चाहते
यही तो मजबूरी है
हम रिश्तों की अहमियत समझते हैं
यह जरूरी भी है
शब्दों से जो टूट जाएं
तब वह रिश्ता किस बात का
जहाँ वाक्य भी सोच समझकर बोलना पडे
औपचारिकता बरती जाए
तब वह बेमजा
तुम कुछ अपनी कहो
कुछ दूसरों की सुनो
अपनेपन के भाव से
न उसमें व्यंग्य हो न नीचा दिखाने की भावना हो
सरलता और सुलभता हो
तभी तो यह नाजुक सी डोर मजबूत रहेंगी
रिश्तों में तानाशाही का पुट
वह तो सब खेल ही बिगाड देगा
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