हरिजन और दलित हो गए
निर्मल , परदेशी , पासवान , वर्मा ,भारती
और न जाने क्या- क्या
अब धोबी , चमार, कुम्हार , लोहार नहीं रहे
सबने अपने सर नेम बदल लिए
अच्छा - अच्छा रख लिया
लेकिन उससे क्या फर्क पडा
जब तक कि मानसिकता न बदले
हिंदू की तो छोड़ दे
जहाँ जाति नहीं हैं
वहाँ भी यही मानसिकता
कन्वर्ट हुए हैं
तब उसकी जडे खत्म कैसे होगी
तब तक
जब तक कि रोटी - बेटी का नाता न बने
एक दिन किसी दलित के यहाँ भोजन करने से
सब बदल नहीं जाएगा
यह दिखाने से कि हम तो उच्च जाति के होकर भी दलित के यहाँ भोजन कर रहे हैं
उच्च जाति भी कम परेशान नहीं हैं
आज ब्राह्मण और ठाकुर का हाल जग-जाहिर है
जाति आधारित ऊपर से चुनाव की गर्म हवा
हमारे जाति प्रधान देश को और गरम कर देता है
सब अपने-अपने खोल से बाहर आ जातियों का हवाला देने लगते हैं
वोट मांगने लगते हैं
विकास मुंह देखता रह जाता है
जाति बाजी मार ले जाती है
यह खत्म होने की तो छोड़ दो
बढता ही जा रहा है
नए-नए कलेवर में आ झलक दिखला रहा है
लोगों को लुभा रहा है
जब तक नेता तब तक चुनाव
इन सबके बीच जाति का वर्चस्व
यही सच भारत का ।
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