समझ नहीं आता
किसी की बेटी
किसी की बहन
किसी की पत्नी
किसी की माँ
तब क्या करूँ
मेरा अपन वजूद
मेरा अपना नाम
वह तो कब का खो गया
बचपन में पाठशाला में नाम से पुकारी जाती थी
टीचर और सहेलियों के बीच
तब लगता था
मैं भी कुछ हूँ
जब कक्षा में अव्वल आती थी
स्टेज पर अभिनय के लिए तालियाँ बजती थी
तब मैं भी इतराती चलती थी
आज उसी पहचान की मोहताज हो गई
किसी की पत्नी किसी की माँ में
सिमट कर रह गई
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