Tuesday, 10 May 2022

शब्दों के घाव

कल यानि  बीती रात खूब  जोरो का तूफान  उठा
अंधड  चला बिजली कडकी
जोरो  की  बरसात  भी हुई 
सब कुछ  भीग गया 
बाहर रखी लकडी  की चौकी 
अरगनी  पर टंगे हुए  कपड़े 
गेहूं  पसारा हुआ था 
और न जाने क्या क्या 

सुबह  फिर धूप खिली
सब फिर सूख गया 
लेकिन  एक अजीब  सी गंध छोड़  गया 
वह ताजगी नहीं  दिखी
जो सूखे हुए  कपडों  में  होती है
सूखी लकड़ी में  होती है
सीलन वाली गंध बरकरार  थी

यही बात तो संबंधों  में  भी लागू होती है
जख्म  लगा  हो
वाणी  के तीर चले हो
तानों  के खंजर खोपे  हो
भरी जमात में  जम कर मजाक  उड़ाया  गया हो
बात बात में  नीचा दिखाया  गया  हो
तब वैसे संबंध  में  ताजगी की अपेक्षा  करना

घाव भर तो जाता है
निशान नहीं  मिटता 
वह तो छोड़  ही जाता  है 
फिर पहले वाली बात तो नहीं  रहती
कितना भी मरहम  लगाने की  कोशिश  हो
वह तो नहीं  मिटने वाला
सीलन , संडाध  और निशान तो  रह ही जाएंगे

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