Monday, 23 May 2022

समाज की विडंबना

ऑखों से ऑसू बह रहे थे
अचानक बेल बजी
तुरंत ऑखों से ऑसू पोछने लिया
दरवाजा खोला 
सामने एक दोस्त खडी थी
उसका मुस्कराकर स्वागत किया
सोफे पर बिठाकर अंदर चली गई 
गैस पर चाय का पानी चढा दिया
दूध - चीनी - चाय पत्ती डाल कर धीमी कर दी
जब तक चाय तैयार हो
तब तक मुंह धोकर थोडा पावडर लगा लिया
बाल पर कंघी फेर ली
तब तक चाय तैयार 
ट्रे में चाय और बिस्किट रख ले गयी
हंस हंस कर खूब बातें की
कुछ पुरानी कुछ नयी यादें 
पर अपने दिल का जख्म नहीं दिखाया
न उसे जाहिर होने दिया
उसके जाने के बाद फिर वही हालात
ऑखे भर भर आ रही थी
हम कैसे दोहरी जिंदगी जीते हैं 
मुखौटा  ओढ कर
अंदर कुछ बाहर कुछ 
हम कितना डरते है 
समाज से लोगों से
कहने को तो हमारे
वास्तव में हैं क्या यह
नहीं शायद नहीं 
अभी कल - परसों का वाकया
माँ और दो बेटियों ने घर में भुखमरी से आत्म-हत्या कर ली
वह भी पाॅश इलाके में 
अच्छे - खासे लोग जिनका एक दूसरा फ्लैट भी था
जो करोना के बाद खाली था बिना किरायेदार के
केवल सडक और फूटपाथ और झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले ही गरीब नहीं होते
मध्यम वर्गीय भी हो सकता है
फर्क इतना है कि वह दिखाता नहीं है
कैसी विडंबना है यह समाज की
जीने भी नहीं देता मरने भी नहीं देता चैन से 

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