Wednesday, 11 May 2022

घर तभी तक है जब तक वह

मैं पैसा कमाने शहर आया
अब तो यही का हो रहा गया
अपने गांव की 
अपनी माटी की
अपने दोस्तों की
याद तो आती है
पर मजबूरी है
अपना गाँव- घर तो छोड़ना ही पडता है
तरक्की का रास्ता शहर से होकर ही गुजरता है

साल - दो साल में पंद्रह दिन के लिए जाता हूँ 
माँ आकर पास बैठ जाती है
झुर्रियों भरे चेहरे के साथ
ऑसू पोंछती जाती है
हाल चाल पूछती है
कभी कुछ मांगती नहीं 
जो पैसे देता हूँ 
सर माथे से लगाकर ले लेती है
ढेरों आशीष देती है

जब तक रहता हूँ 
उसके लिए उत्सव समान रहता है
मन पसंद खाना बनवाती है
ठोकवा - पुरी बनाती है
खीर - बखीर बनाती है
वह सब व्यंजन 
जो बचपन में मैं बडे प्रेम से खाया करता था
प्रस्थान करते समय
अचार - भरवा मिर्चा 
चना - लाई , चूरा 
सब बांध कर देती है

सोचता हूँ यह है
तब तक ही यह सब
उसके बाद कौन खोज - खबर लेगा 
सही है माँ है
तभी तक घर , घर है

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