कब तक काटेगा
कब तक तोड़ेगा
कब तक पायेगा
कब तक खोदेगा
कब तक अपने स्वार्थ के लिए हमें उजाड़ेगा
हम तो तेरी ही संपदा है
उसी को तू नष्ट कर रहा है
लूट रहा है , लूटा रहा है
हम प्रकृति है
देना हमारा स्वभाव है
आखिर कब तक ??
हमारी भी एक सीमा है
केवल हमार शोषण ही करोगे
तब तो विनाश अवश्यभांवी है
तुम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हो
जो तुम्हारा पालन - पोषण करती है
उसे ही खत्म कर रहे हो
जल ,वायु ,भोजन तो हम ही से
हम न रहेंगे
तो तुम्हारा क्या होगा
यह विचार किया है कभी
क्या सीमेंट , रेत ,कांक्रीट, खाओगे
धरती की भी सहनशीलता है
कितना लोगे
देना कुछ नहीं
बस लेना ही लेना
ऐसी स्वार्थ वृत्ति
हर संतान में तुम सबसे बुद्धिमान
तुम तो सबको अपना भक्ष्य बना रहे हो
पेड़- पौधे ,पशु-पक्षी , नदी - पहाड़
वन - जंगल , समुंदर- आकाश
केवल अकेले रहना है
तब तो तुम भी न रहोगे
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