पर्वत राज से निकलती है
टेढे मेढे रास्ते
गुफा - कंदराओं से होकर गुजरती है
छोटे-छोटे कंकर - पत्थर से लेकर चट्टानों तक
सब उसकी राह का रोड़ा बनने की कोशिश करते हैं
बाधा डालने की कोशिश करते हैं
वह हार नहीं मानती
डगर भी बदल लेती है
टेढे मेढे रास्ते को भी अपना लेती है
न थकती न रूकती
बस चलती ही जाती है
रास्ते में जो मिला उसको भी जल देती जाती है
अंत में अपने गंतव्य पर जाकर रूकती है
विशाल नदी का रूप धारण करती है
पहाड़ से निकल कर
नदी बनने तक की यात्रा आसान नहीं होती
जीवन और जल दोनों की कहानी एक ही जैसी
दिया तभी परमार्थ
अन्यथा बेकार
अंत में सब खतम ही होना है
गर्मी के ताप से धीरे-धीरे सूख जाना है
जब तक है तब तक ही महत्व
अन्यथा कुछ नहीं।
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