दुराचारी , अन्यायी, कुल घाती
कोई मेरा नाम आदर से नहीं लेना चाहता
नाम तो था सुयोधन
कब बन गया दुर्योधन
यह तो होना ही था
माता-पिता अंधे थे
मामा बदले की आग में जल रहे थे
पितामह का विशेष प्रेम पांडवो के प्रति
उस पिता का बेटा जिसका हक उससे छिन लिया गया हो
अंधत्व के कारण
दूसरे का मुकुट सर पर धारण किए हुए कार्यकारी महाराज
वे अंधे थे मैं तो नहीं
उनका हक नहीं मिला पर मुझे तो मिले
यहाँ भी युधिष्ठिर बाजी मार गए
जेष्ठ बन गए
मैं वीर गदाधारी बलराम जी का शिष्य
गुरू द्रोणाचार्य का शिष्य
मेरी वीरता की कहीं सराहना नहीं
सबने मेरे साथ छल ही किया
युद्ध में भी शरीर से मेरी तरफ थे मन से पांडवो की तरफ
यहाँ तक कि मेरा प्रिय मित्र कर्ण भी मजबूरी औ एहसान में बंधा रहा
वह पांचाली की हंसी मैं कैसे भूल सकता हूँ
वह व्यंगय कि अंधे के पुत्र अंधे ही होते हैं
एक दाह सी उठती है तन - मन में
बदला लेने की भावना
वैसे भी पांडव कभी मुझे प्रिय रहे ही नहीं
बचपन से ही छल करता रहा
मामा शकुनि उसे बल देते रहें
एक बाल मन में जब ऐसा बीज डाल दिया जाएं
उसकी परवरिश ठीक तरह से न हो
पिता तो अंधे थे ही माता ने भी ऑख पर पट्टी बांध ली
हम पांच भाई नहीं थे सौ की संख्या
यह भी आसान नहीं था
प्रतिशोध की अग्नि में जलता सुयोधन
कब दुर्योधन बन गया
महाभारत का कारण
कुल विनाश का कारण
सोचा जाएं तो
क्या मैं ही एक कारण था शायद नहीं
महाराज शांतनु से शुरू हुआ अन्याय मुझ पर खत्म हुआ
क्या पितामह भीष्म दोषी नहीं थे
हस्तिनापुर की रक्षा का वचन देकर उसी के नाम पर अपने साथ - साथ दूसरों पर भी अन्याय कर रहे थे
अंबा , अंबिका ,अंबालिका से लेकर माता गांधारी तक का सफर महारानी द्रौपदी पर जाकर खतम
चीर हरण जैसे कलंकित काम को मैंने अंजाम दिया
मैं अंजान नहीं था अपने कार्यकलापों से
मुझे ज्ञात था मैं गलत कर रहा हूँ
पर अपने घमंड में स्वार्थ में
सबका सर्वनाश का कारण बना ।
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