Friday, 16 June 2023

मैं बंजर नहीं हूँ

मैं बंजर नहीं हूँ 
होना भी नहीं चाहती
हाड- मांस का शरीर है
उसमें एक धडकता दिल भी है
उसकी अपनी भावनाएं हैं 
उसके अपने सपने हैं 
उसकी अपनी कल्पना है
उसकी अपनी आशा- आकांक्षा है
सब कुछ इसी दिल के इर्द-गिर्द घूमता रहता है
कभी खुश होता है
कभी गमगीन होता है
कभी हंसता है
कभी रोता है
कभी नाराजगी जताता है 
कभी उदास और तनावग्रसित 
कभी खुशी से बल्लियों उछलता है
कभी इतना बोलता है कि सुनने वाले थक जाएं 
कभी इतना चुप कि लोग पूछे
कभी इतना क्रोधित कि दूर ही लोग रहे
कभी अजनबी से भी प्यार
कभी अपने ईश्वर को भी कोसना 
कभी उनकी कृपा का गुणगान करना
कभी इतना घुल- मिल जाएं कि महफिल ही जमा दे
कभी शेरों- शायरी और कविता करना
कभी मन मारकर बैठ जाना 
कभी वाह करना तो कभी आह करना 
यह सब ही तो जीवंतता है
मन अभी बंजर नहीं हुआ है
मरा नहीं है
संवेदनाएं लुप्त नहीं हुई है
सांस ले रहा है
ठंड , गर्म और वर्षा को महसूस कर रहे हैं 
पतझड़ और वसंत दोनों को जी रहे हैं 
खुलकर हंस भी रहे हैं 
बुक्का फाडकर रो भी रहे हैं 
जब जब जो हो रहा है वैसे ही
छुपाना और बनावटीपन ज्यादा नहीं चलता 
जो हैं जैसे भी हैं 
हम बंजर नहीं हुए हैं 
आज यह तो कल वह
वक्त का पहिया है
उसके साथ चलते रहते हैं 
खाद - पानी मिला 
कोई खुशी आई 
फिर हरे भरे हो उठे
जानते हैं 
आज यह तो कल वह
भूत और भविष्य के बीच 
वर्तमान में हम ही तो केंद्र हैं 
जब तक चिता पर नहीं तब तक चिंता भी साथ 
कभी अपनी , अपनों की 
यह ही तो बल है
समय-समय पर उठ खडे होते हैं 
यह जता देते हैं 
अभी हम बंजर नहीं हुए हैं। 

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