लगा जैसे दिल , शरीर से बाहर आ गया
विवश और मजबूर
इतना तो कभी नहीं हुआ था
बडी बडी विपत्तियों का सामना किया था
डट कर लोगों से लोहा लिया था
किसी की बात बर्दाश्त नहीं कर सकने वाला
आज चुप और मायूस है
दूसरों से तो लड लो
प्रतिकार कर लो
बात तो तब होती बडी है
जब मामला बेटी से जुड़ा हो
अपने नाजो से पली बेटी
दिल का टुकड़ा
उस पर जब आघात होता है
और हम मूक बने रह जाते हैं
वह ऑसू छुपाती है
अपने घाव छुपाती है
बहाने बनाती है
झूठमूठ की खुशी दिखाती है
पर बाप हूँ न
उस की रग रग से परिचित हूँ
वह शैतानी करने वाली
वह मनमानी करने वाली
वह किसी की बात न मानने वाली
वह हठ- जिद करने वाली
अपना मनपसंद करवा कर ही दम लेनेवाली
आज इतना बदल गई
वह ही नहीं बदली
मैं भी तो बदल गया हूँ
प्रतिकार की जगह उसे एडजस्टमेंट करना सिखा रहा हूँ
आखिर क्यों
क्या डर है
उसकी घर - गृहस्थी न टूटे इसलिए
वह तो रोज ही टूट रही है
मैं भी टूट रहा हूँ
इस रोज रोज टूटने से अच्छा
क्यों न उस संबंध को ही तोड़ दिया जाएं
जीना है तो मर कर जीने से क्या फायदा
जिंदा लाश बनना है
शायद नहीं
बिल्कुल नहीं
तब उठ खडे हो
प्रतिकार करों
अन्याय का अत्याचार का
जिंदगी गुलामों जैसी गुजारने के लिए नहीं है
अगर कोई औकात में नहीं रहता है
तब तो उसकी औकात भी दिखानी पडेगी ।
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