यहाँ तो टूटते हुए तारे से भी दुवा मांगी जाती है
मृत्यु के उपरांत भोज खाने की कामना रहती है
अर्थी से भी प्रार्थना की जाती है
पेड़ तोड़ लकडी चूल्हे में जलाई जाती है
हमारा पेट भरे
दूसरे से क्या फर्क पडता है
लाशों को भी लूट लिया जाता है
आपदा के समय का राहत वाला पैसा
उसमें भी घोटाला
कफन से भी कमाया जाता है
अपने लाभ के लिए क्या क्या नहीं करता है
फिर दिखाता है कि
हम सभ्य है
दयावान है
पशु तो जैसा होता है वैसा ही दिखता है
इंसान तो खाल ओढकर रहता है
होता कुछ है
दिखता कुछ है
अगर यह अपने पर उतर आए तो इससे खूंखार कोई नहीं है
इतिहास गवाह है
वर्तमान में भी यही हो रहा है
यह सामाजिक और प्रेमल प्राणी कब क्या करें
किस बात पर जश्न मनाए
यह तो वही जाने ।
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