सबको कुर्सी लगती अपनी
नहीं होती यह किसी की सगी
आज तुम्हारी तो कल किसी और की संगी
इसका मोह छोडो
जब तक साथ है तब तक ही नाता जोड़ों
उसके बाद इससे मोहमाया छोडो
जिस कुर्सी के आगे - पीछे नाचते
न जाने इसको जतन से संभालने के लिए क्या-क्या करते
कुछ लोग तो अपना धर्म- इमान भी बेचते
मक्कारी और फरेबी का दामन थामते
कुर्सी का मोह जो किया
उसका तो कभी न कभी अंत हुआ
वह तो दूर खडी मुस्कराती
दूर से ठेंगा दिखाती
अब समय खत्म हुआ
किसी और की बारी
न जाने कितनी बार चढाती- उतारती
जो जब तक बैठा तब तक ही साथ निभाती
नहीं तो फिर सौतन बन जाती ।
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