Sunday, 9 July 2023

कुर्सी का खेल

सबको कुर्सी लगती अपनी
नहीं होती यह किसी की सगी 
आज तुम्हारी तो कल किसी और की संगी 
इसका मोह छोडो 
जब तक साथ है तब तक ही नाता जोड़ों 
उसके बाद इससे मोहमाया छोडो
जिस कुर्सी के आगे - पीछे नाचते
न जाने इसको जतन से संभालने के लिए क्या-क्या करते 
कुछ लोग तो अपना धर्म- इमान भी बेचते 
मक्कारी और फरेबी का दामन थामते 
कुर्सी का मोह जो किया
उसका तो कभी न कभी अंत हुआ 
वह तो दूर खडी मुस्कराती 
दूर से ठेंगा दिखाती 
अब समय खत्म हुआ
किसी और की बारी
न जाने कितनी बार चढाती- उतारती 
जो जब तक बैठा तब तक ही साथ निभाती 
नहीं तो फिर सौतन बन जाती ।

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