ऊंचाई बोलती है
गहराई अपने असतित्व को मिटाती है तब वह नींव की ईंट बनती है
ऊंचाई अपने को स्थापित करती है तभी वह कंगूरे के रूप में दूर तक दिखाई पडती है
एक नीचे अंधकार में जाती है
एक अपने को चमकदार बनाती है
अपने को मिटाना इतना आसान नहीं होता
अहमियत तो सभी को चाहिए
इस गहराई की वजह से ऊंचाई खडी है
इसका भान उसे भी होगा पर शायद जताना नहीं चाहती
जिस दिन गहराई हिलेगी ऊंचाई अपने आप भरभरा कर गिर जाएगी
ऐसे ही हमारे समाज में
हमारे परिवार में
ऐसे लोग रहते हैं जिस पर परिवार टिका रहता है पर उसकी अहमियत नहीं पता चलती
हल्के में लिया जाता है
हर ऊंचाई के पीछे किसी का त्याग और सहयोग छिपा होता है
यहाँ व्यक्ति अकेला कुछ नहीं कर सकता
न जाने कितनों का योगदान आपकी सफलता के पीछे
कर्म तो सब करते हैं
परिणाम समान नहीं होता
यह नहीं कि आप सफल हो गए
बडे हो गए
तो वह आपकी उपलब्धि हो गई यह गलतफहमी है
कैसा वातावरण , कैसा परिवार , कैसी शिक्षा, कैसा पडोसी , कैसा मित्र और न जाने कितने
भाग्य को हम कैसे भूल जाएं
उसकी भी तो भूमिका
व्यक्ति कितना ही व्यक्तिनिष्ठ क्यों न हो समष्टि का हाथ तो होता ही है ।
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