एक जमाना था
जब मारना ही एक सबसे बडा शस्र था
कब मार पडे
किससे मार पडे
कहा नहीं जा सकता
मारना- कूटना दिनचर्या में शामिल
कोई दिन बिना थप्पड़ खाएं नहीं
घर से बाहर तक
अम्मा घर में
बाबु जी बाहर
इसके बाद घर के और सदस्य
स्कूल में मास्टर जी
सुबह न उठा तो थप्पड़
खाना न खाएं तो थप्पड़
खेल कर देर से आए तो थप्पड़
थप्पड़ न था जैसे कोई जडी - बूटी थी
खाकर ठीक हो जाएंगे
कभी-कभी तो पता ही नहीं चलता
यह थप्पड़ क्यों पडा
आपस में लडाई पति - पत्नी की
थप्पड़ बच्चों पर
हमारी साठ - सत्तर की दशक वाले थप्पड़ खा खाकर ही बडे हुए हैं
कोई फर्क भी नहीं पडता था
न बुरा लगता था
थोडी देर ही असर रहता था
मान - स्वाभिमान ताक पर रखा था
सोचते हैं
क्या हमारी परवरिश गलत थी
थप्पड़ का भी कोई स्थान हैं क्या
यह बात तो अब तक समझ नहीं आई
ऐसा तो नहीं कि यही थप्पड़
जिंदगी के थपेडों से बचाती रही है
यही जोरदार का झन्नाटेदार झापड
हर तूफान का सामना करने की शक्ति दे रहा है
सब तो नहीं
पर कुछ थप्पड़ आज तक जेहन में याद है
वे आज तक गूंजती रहती है
सचेत करती है
उन लोगों की याद दिला जाती है जो अपने थे ।
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