मैं गुनता हूँ
किताबों के संग रहता हूँ
हंसता हूँ
रोता हूँ
गाता हूँ
बतियाता हूँ
बटोरता हूँ
बाँटता हूँ
सुनाता हूँ
यह सब करते करते मैं स्वयं किताब बन जाता हूँ
इतना संचित कर लेता हूँ
सोचता हूँ जितना दे सकूं
दिया करू
वह भी मुफ्त
लेकिन यहाँ ज्ञान नहीं
भाषण नहीं
रोजी - रोजी की दरकार है
किताब नहीं भोजन
तभी तो जब कोई कहता है कि
पढा लिखाकर क्या होगा
मेहनत- मजदूरी करेगा तो चार पैसे आएंगे
घर चलेगा , परिवार चलेगा
पेट सबसे ऊपर ।
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