गांव हमें पहचानता है
समझ नहीं आता
जो हम किताबों में पढते हैं
गाँव वैसा ही है क्या
जो हम सुनते हैं
गाँव वैसा ही हैं क्या
भाईचारा और प्रेम की बातें
संयुक्त परिवार की बातें
सौंधी रोटी की सुवास
ताजी - ताजी सब्जी
दूध , दही , घी का भंडार
द्वार पर आए व्यक्ति का स्वागत- सत्कार
त्यौहार पर मिलना - जुलना
यह तो लगता है
अब किस्से - कहानियों में ही हैं
हमने जो गाँव देखा है
आपस में पटीदारो में ईष्या- दुश्मनी
बात बात में गाली गलौज
लाठी और हथियार निकाल लेना
मांस और मदिरा का जोर
एकल परिवार
सब्जी उगाने की जहमत नहीं
पूर्वजों का खेत बेचकर काम करना
दूध - दही कहाँ से आए
जब द्वार पर गाय - बैल - भैंस ही नहीं
सब बंटे हुए हैं
कोई किसके द्वार नहीं जाता
घमंड और गर्व में चकनाचूर
मेहमानों का स्वागत की बात तो दूर कोई खाना बनाने को तैयार नहीं
खेत परती पडे हैं
मजदूर मिल नहीं रहे हैं
खेती करना कोई चाह नहीं रहा है
सरकार से निधि और अनाज मिल रहा है
ब्रांडेड कपडे , मोबाइल और मोटर साईकिल पर सवारी हो रही है
कुछ तो पिता के पेंशन पर जी रहे हैं
बगीचे खत्म हो रहे हैं
पेड को काटकर बेचा जा रहा है
जान बूझ कर कर्जा लिया जा रहा है पता है माफ हो जाएंगा कभी न कभी
शादी - ब्याह भी एक औपचारिकता भर रह गया है
तभी लगता है
गाँव को हमने जाना ही नहीं
शायद जिस गाँव को जानते थे सुनते थे
उससे भिन्न यह है
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