सब जगह धुआं धुआं
वह चाहे जिंदगी हो
आसपास का वातावरण हो
कैसे निकले इससे
यह समझ नहीं पाते
इसी धुएं में गोल - गोल घूमते जा रहे हैं
अपने ही बुने जाल में फंसते चले जा रहे हैं
कभी रिश्तों का जाल
कभी मशीनों का जाल
कब यह बंद पड जाएं
कब टूटने की कगार पर आ जाएं
कहा नहीं जा सकता
सब जगह धुआं धुआं
धुंधलका से घिरे हम
कुछ साफ नजर आता नहीं
इनके बीच घिरे हम कहीं ।
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