घर - संसार बसाने की
ख्वाब था
सपनों का घर
वह तो सपना ही रह गया
बसना क्या भटकना रहा बदस्तूर
कभी यहाँ कभी वहाँ
जिंदगी ले जाती जहाँ
वह आगे आगे
हम पीछे पीछे
पकड़ने की कोशिश
पकड़ ही नहीं पा रहें
वह हर बार राह बदल लेती है
एक नया मोड़ ले लेती है
कभी पगडंडियों पर
कभी टेढे मेढे रास्ते पर
समतल पर भी कभी-कभी
लेकिन वहां भी गढ्ढे ही गढ्ढे
हम पाटने की भरसक कोशिश करते
वह है कि पटने का नाम ही नहीं लेते
सही कहा किसी ने
मुकम्मल जहां नहीं मिलता
किसी को जमीन तो किसी को आसमां नहीं मिलता।
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