Wednesday, 29 January 2025

फर्क पड़ता है

हवा सर्द थी
बहुत बेरहम थी
ठिठुरा रही थी
कंपकंपी बढ़ा रही थी 
हम उससे अपने को बचाने की कोशिश कर रहे थे
शाँल लपेट रहे थे 
स्वेटर भी पहन रखी थी
मोजे - दस्ताने भी पहन रखे थे 
वह अपनी गति से 
हम सोचते रहें
जल्दी जाए 
वह कहाँ मानने वाली
हवा है 
स्वतंत्र है
उसकी अपनी मर्जी
हम उसकी तरह क्यों नहीं 
अपनी मर्जी नहीं चला सकते
सबका ध्यान रखना पड़ता है
किसको अच्छा लगता है 
नहीं लगता है
हवा को फर्क नहीं
हमको पड़ता है
हम मनुष्य है
हमारे पास दिल है 
जिसको फर्क नहीं उसे इंसान की संज्ञा नहीं दी जा सकती 

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