वेदना हुई उसे
आहत हुआ मैं
तड़पी वह
पेट भरा मेरा
तृप्त हुई वह
मैं मुस्कराया
हर्षित हुई वह
मैं सफलता की सीढ़ी चढ़ा
गर्व से माथा ऊंचा हुआ उनका
मैं कुर्सी पर बैठा
वह जमीन पर बैठे ही निहारते
मैं घर में बैठ खुशियां मनाता
वे बाहर ढिंढोरा पीटते
अपने लिए कुछ न मांग
सब मेरे लिए मांगते
अपनी भी उम्र मुझ पर न्योछावर करते
बिना स्वार्थ के अपनी सामर्थ्य से ज्यादा
जो कर जाते
वे कोई साधारण लोग नहीं
उन्हें माता - पिता की संज्ञा दी जाती है
ईश्वर नहीं है
लेकिन भाग्य लिखने का अधिकार उन्हें जो मिलता
तब तो वे वह लिखते कि
भगवान भी ताकते रह जाते
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