होता कुछ और है
डर - डर के ही सारी उम्र जीता है
कभी अपनों के लिए कभी अपने लिए
वर्तमान के लिए भविष्य के लिए
सुखद जीवन के लिए
बचता रहता है
बचाता रहता है
फिर भी जो घटना है वह घटता ही है
कुछ नहीं कर पाता
कोई बुरा न मान जाए
कोई साथ न छोड़ दें
अकेला न पड़ जाऊ
जायज - नाजायज सब स्वीकार करता है
कभी आत्मसम्मान को गिरवी रखता है
कभी गुरुर को ताक पर
गुजारना है दुनिया में
इन सबके बीच ही रहना है
न जाने कितना पीसता है दो पाटे में
उसका अस्तित्व तो रहता ही नहीं
कठपुतली सा नाचता है
दुनिया तो फिर भी खुश नहीं होती
मत डरो
डरों तो ऊपर वाले से
कोई किसी का सगा नहीं
मतलब के मीत है
No comments:
Post a Comment