Tuesday, 19 August 2025

मैं अकेला रह गया

देखते - देखते सब उड़ गए 
वृक्ष अकेला खड़ा देखता रह गया 
सबने अपना आशियाना बना लिया 
उस आशियाना को छोड़ चले 
जहाँ कभी इकठ्ठा होकर रहते थे 
हंसते थे खिलखिलाते थे 
एक दूसरे के करीब रहते थे 
लड़ते - झगड़ते भी थे 
मान - मनुहार भी करते थे 
मैं मन ही मन मुस्कराता था 
देखकर आनंदित होता था 
उनका भविष्य का सोचता था 
वे कब आत्मनिर्भर बनेगे 
अपना जीवन बनाएंगे 
उड़ान भी भरेंगे 
आखिर उन्होंने उड़ान भरी 
अपना आशियाना भी बनाया  
मैं भी तो यही चाहता था 
अब फिर दुखी क्यों हूँ 
यह तो होना ही था 
संसार का नियम है 
यहाँ स्थायी कुछ भी नहीं है 
यही बात तो संबंधों पर भी लागू होता है 
अकेलापन खलता है 
खोखला भी तो हो रहा हूँ 
कब जाने गिर पड़ू 
आग में जल राख बन जाऊ 
अकेला ही आया 
अकेला ही जाऊंगा 
अफसोस क्यों करू 
जी भर जीया 
मन भर मरु 
जहाँ से आया 
वहीं फिर से कूच करु 

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