सेना कर रही हमारी रखवाली
तभी हम मना रहे शानदार दीवाली
सीमा पर तैनात है हमारी फौज
तभी हम कर रहे हैं मस्ती - मौज
सेना दाग रही है तोप और बम
तभी हम उडा रहे फुलझडी और फटाके
सेना कर रही है फायरिंग
तभी हम कर रहे हैं घर में रोशनाई
सेना चला रही सीमा पर गोली
तभी हम निकाल रहे दरवाजे पर रंगोली
सेना कर रही सर्जीकल स्ट्राइक
तभी हम घूम- घूमकर एक - दूसरे को दे रहे बधाई
सेना अपने परिवार को छोड दे रही दुश्मन को जवाब
तभी हम कर रहे घर में पूजापाठ
सेना जाग रही
तभी हम चैन की नींद सो रहे
सेना सीमा पर पहरा दे रही
तभी हम आराम और खुशी से त्योहार मना रहे
सुरक्षित महसूस कर रहे
तो फिर सेना को करे हर वक्त याद
सेना का बलिदान ,सेना का योगदान
उनका करे हमेशा सम्मान
जय हिन्द
जय हिन्द की सेना
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Friday, 28 October 2016
सेना का बलिदान - हमेशा करें सम्मान
धनतेरस की सभी को शुभकामना
धनतेरस ,धन का ही नहीं स्वास्थ्य का भी त्योहार है
भगवान धनवंतरी की कृपा सब पर बनी रहे
नए- नए बर्तन लाए और रसोई में खाना बना कर सबको स्वस्थ करें
स्वास्थ्य ही असली धन है
अगर शरीर ही स्वस्थ नहीं तो फिर जीवन ही नीरस है
मॉ लक्षमी की कृपा सब पर बनी रहे
धन- धान्य से पूर्ण घर हो ,तभी उन्नति संभव है
अगर पेट भरा होगा तो ही विकास का मार्ग दिखाई देगा
इसलिए धन के साथ- साथ स्वास्थ्य भी बना रहे
अपनों का साथ बना रहे
असली धन तो वही हैं
मॉ- बाप ,बेटा - बेटी ,भाई- बहन ,पति - पत्नी यह सब रिश्ते तो धन से कम नहीं
अत: हर रिश्ते को आदर दे
उनकी आवभगत करें
सम्मान दे
इन असली धन को संभाले
Thursday, 27 October 2016
काश! मेरे भी खाते में पन्द्रह लाख रूपये आ जाते
मैं एक गरीब व्यक्ति
मजदूरी करना मेरा काम
रोज कमाना ,रोज खाना
एक दिन बीमार पड जाउ तो परिवार भूखा रह जाता
कभी - कभी तो पन्द्रह रूपये के लिए भी मोहताज
बैंक में खाता खुलाना तो एक सपना
पहले तो बैंक की दहलीज पर भी पैर न रखा
पर अब तो खाता खुलवाने के लिए कहा जा रहा
मैंने भी जाकर खाता खुलवाया
जो पहले हिकारत भरी निगाह से देखते थे
आज उन्होंने प्यार से बात की
समझाया और फारम पर अंगूठा भी लगवाया
चमचमाता बैंक ,कुर्सी ,टेबल सब देखकर
मन में अच्छा लगा
अब मेरे भी अच्छे दिन आ जाएगे
मन में इच्छाएं उडान भरने लगी
घर आया ,बीवी और बच्चों को बताया
अब हमारा भी खाता खुल गया है
हमारे खाते में लाखों रूपये आने वाले है
अब हम झोपडी में नहीं रहेंगे
पक्का घर बनआउगा
बच्चे स्कूल में पढने जाएगे
और यही सोचते- सोचते नींद ने अपने आगोश में ले लिया
न जाने मन कहॉ- कहॉ भटकने लगा
सपनों में सब अच्छा - अच्छा दिखाई देने लगा
सुबह होते ही नहा- धो ,तैयार होकर बैंक गया
आज पास बुक लेने के लिए बुलाया था
पासबुक बिना पैसे के था
खाता खोलने के लिए पैसे नहीं लगे थे
सोचा ठीक है
आज नहीं तो कल पैसे आएगे
तब से हर हप्ते एक बार बैंक का चक्कर लगाता हूँ
१५ लाख रूपये तो क्या १५ पैसे भी नहीं जमा हुए
तो फिर क्या यह केवल स्वप्न दिखाया गया था
गरीब की झोली तो खाली ही है
फिर चुनाव आ रहा है
फिर कोई वादा होगा
बाद में भूल जाएगे
सत्ता पर लोग विराजमान होगे
हमें तो मजदूरी ही करनी है
बाबा तुलसीदास ने सही कहा है
"कोउ होउ नृप हमें का हानि
चेरी छाडि न होउओ रानी"
यानि कोई भी रानी हो मुझे क्या फर्क पडता है
मैं तो दासी की दासी ही रहूगी
कहने का मतलब किसी की भी सत्ता आए
गरीबों का कोई नहीं
Saturday, 22 October 2016
अरे ,यह तो जोरू का गुलाम है
यह बात अक्सर सुनने में आती है
जब कोई व्यक्ति अपनी पत्नी की बात मानता है
और यह घर के लोग ही होते हैं ,जो यह बात कहते हैं
अरे! यह तो जोरू का गुलाम है
आखिर क्यो???
अगर पत्नी की बात सही है तो उसे मानने में हर्ज क्या
मॉ की बात मानी तो योग्य पुत्र और बहन की मानी तो अच्छा भाई पर पत्नी की मानी तो नालायक
अगर घर के काम में हाथ बटाया तो सबकी ऑखों में खटकने लगता है
पत्नी कामकाजी है ,नौकरी कर घर की आर्थिक स्थिति मजबूत कर रही है
तो फिर सारी जिम्मेदारी उसी पर क्यों ??
यहॉ तक की पडोसी भी कहते हैं
अरे वह तो औरतों की तरह घर का काम करता है
बीवी का पल्लू पकडे रहता है
पहली बात तो मर्द घर का काम करना नहीं चाहते
यह क्षेत्र केवल महिलाओं का है
खाना से लेकर बच्चे संभालने तक
और अगर कोई सहयोग करता है तो उसे ताने सुनने पडते हैं
कितने तो कोई देख न ले या आ न जाय
इस डर से चुपके से घर का काम करते हैं
यहॉ तक कि पडोसने भी पीछे नहीं रहती
तुम्हारा क्या है
तुम्हारा तो हसबेन्ड काम कर देगा
पर यह भूल जाती है कि इनके जिम्मे केवल घर का काम है
जबकि कामकाजी के ऊपर दोहरी जिम्मेदारी है
अगर बेटा ,भाई या पति काम करते हैं तो अच्छी बात है
समय बदल रहा है तो समाज को भी अपना नजरियॉ बदलना पडेगा
घर की महिला नौकरानी नहीं है
वह बराबर की हकदार है
वह भी सम्मान की पात्र है
वह केवल सबकी सेवा करने के लिए नहीं
बल्कि स्वयं का जीवन जीने की भी अधिकारिणी है
Friday, 21 October 2016
क्षमा बडन को चाहिए
क्षमा बडन को चाहिए ,छोटन को उत्पात
यह दोहा तो सुना और पढा था पर आज इसका गहरा भाव समझ आ रहा है
हर जगह जंग और द्वंद छिडी है
नया- पुराना ,सीनियर- जुनियर ,युवा-बूढे
घर हो या ऑफिस
हर कोई दूसरों पर टूट पडने को तैयार
पहले लोग कहते थे
जवान खून है मुँह मत लगो
अगर अपनी इज्जत और सम्मान बनाए रखना है
आज का युवा उग्र हो रहा है
तनाव ,बेबसी ,बेकारी ,स्पर्धा के युग में
वह असुरक्षित महसूस कर रहा है
वह स्वयं ही मानसिक रूप से असंतुलित हो रहा है
दूसरी बडी वाली पीढी भी यह मानने को तैयार नहीं
क्षमा नहीं प्रतिस्पर्धा कर रही है
परिणाम अपनों के हाथों ही हत्या तक हो जा रही है
छोटी सी टेलीविजन देखने जैसी बात पर
रात को देर से घर आने पर टोकने पर
परिस्थिती विकट होने वाली है
अगर कुछ अनदेखा ,कुछ क्षमा ,कुछ धीरज न रखा गया तो
घर- परिवार और व्यक्ति को टूटने से बचाया नहीं जा सकता
अभिभावक और असामान्य बच्चे
सडक पर दो- चार लोग खडे तमाशा देख रहे थे
एक बच्चा बीच राह में खडा जोर- जोर से चिल्ला रहा था ,हाथ- पैर पटक रहा था
मॉ धीरज धर बिना झल्लाए उसे मना रही थी
किसी की भीड में से आवाज आई
दो थप्पड लगाओ ,ठीक हो जाएगा
इतना सर पर चढाना ठीक नहीं
पर वह बच्चा सामान्य नहीं असामान्य था
मॉ विवश ,लाचार और दुखी थी
फिर भी झंझलाहट की बजाय चेहरे पर मुस्कराहट से उसे मनाने का प्रयास कर रही थी
मॉ की इस धीरता और मजबूती को दाद देना होगा
यह किसी एक दिन की बात नहीं
हर दिन ,हर पल उसको इन सब से जूझना पडता होगा
खाने से लेकर पाठशाला तक
छोटी - छोटी क्रियाकलापों से भी
तब भी वह टूटी नहीं बल्कि शक्तिशाली बन
लोगों की हँसी और ताने भी झेल रही है
उसका बच्चा उसके लिए बहुत विशेष और अमूल्य है
यह बात तो केवल मॉ ही समझ सकती है
दूसरे कैसे जानेगे
बच्चों का बचपन
पीली- पीली ,काली धारीवाली ,सुंदर तितली रानी
आ गई मंडराती खिडकी से
न जाने कहॉ से भटकती ,बगीचा छोड कमरे में
क्लासरूम में बच्चे डरने लगे
हिलने- डुलने ,हो- हल्ला करने लगे
जैसे कोई भयानक जीव जो उन पर हमला कर देगा
वह भी कोमल ,नाजुक तितली
अपना बचपन याद हो आया
एक हम थे जो भरी दोपहरी में तितली पकडने को दौडते
घात लगाकर और धीरे से ताकि हाथ आ जाय
पकडने पर जो खुशी मिलती थी उसका तो जवाब नहीं
आज बचपन डर रहा है
सही भी तो है
क्योंकि उन्होंने तो यह सब देखा ही नहीं है
उनकी दुनियॉ तो चित्रों में ही सिमट कर रह गई है
घर की चहारदीवारी में बंद हो गई है
तितली ,जुगनु ,भौरें तो कल्पना में है
वे तो मशीन के साथ मशीनी जीवन भी जी रहे हैं
कब ,क्या ,कितने बजे ,पूरा टाईमटेबल बना है
तो वह बचपन की स्वतंत्रता और शरारत को क्या महसूस करेंगे
और जीव- जन्तु ,फसले इससे कैसे परिचित होगे
असली जीवन तो उन्हें मिला ही नहीं
कागजों में ही उनकी दुनियॉ सिमटी है
Thursday, 20 October 2016
There were two extremely talented batsmen from Mumbai. Their coach was Ramakant Achrekar Sir. Both had a brother named Ajit. While one Ajit guided his younger brother in the right direction to give India Sachin Tendulkar, the other Ajit went down and took his brother and his potentially great career down along with him. This is the story of that unfortunate batsman whom Sachin used to address as “Sir”. He is Anil Gurav and this is his story: He used to play for the Mumbai U-19 team.Coach Ramakant Achrekar used to ask youngsters Tendulkar and Kambli to watch Gurav's strokeplay and learn from him.He was called the Viv Richards of Mumbai and everyone thought it would be Gurav who would first go on to play for India.He says regarding his association with Sachin- "I was his captain at Sassanian (cricket club). He wanted to use my bat but was too shy to ask me directly. The request came through Ramesh Parab (now international scorer at Wankhede stadium), and I told Sachin he could use it provided he made a big score. He said,'I will, sir' and went on to score a century with my SG bat." However he fell a victim to circumstances. His brother Ajit became a sharpshooter of an underworld gang. Police officers used to pick up Gurav and his mother repeatedly and severely beat them up to find out the whereabouts of his brother Ajit, sometimes detaining them for days. By the time this ordeal ended, Gurav's cricketing career was also over. He took to heavy drinking. Everything was lost, his career, his dreams, all went up in smoke. He now lives in a shabby 200 sqft room in a slum in Nalasopara, Mumbai. Gurav says he last met Sachin in the early 1990s at the Islam Gymkhana at Marine Lines, when he saw Sachin getting into his car surrounded by security guys. Sachin saw him and at once recognized him. He called him and spoke for a couple of minutes and asked him to come to his home. Now while Sachin Tendulkar has become a legend of the Cricket world who went on to achieve everything, Anil Gurav is a 48-year-old incorrigible drunk striving to keep his family together Both of them were talented but talent is not the only component. This story illustrates how a good family background and support is invaluable. Not everyone is lucky enough to have it.
एक नकल जिसने जिंदगी बदल दी
बात उन दिनों की है जब मैं दसवीं की परीक्षा दे रही थी
पहला ही साल था
१०+२+३ पद्धति का
उस समय ट्युशन का तो सवाल ही नहीं था
किताब और कॉपी का जुगाड हो जाय
वही बहुत था.हिन्दी माध्यम की पाठशाला
अंग्रेजी कुछ समझ नहीं आती थी
९वीं तक तो जैसे- तैसे पास कर लिया
पर बोर्ड की परीक्षा.
अंग्रेजी का पेपर सामने आते ही हाथ- पैर फूल गए
कुछ समझ आता था ,कुछ नहीं.
व्याकरण तो बिल्कुल नहीं
नकल करना अच्छा नहीं ,यह मालूम था
पर कोई चारा भी नहीं था
कुछ अगली बेंच पर बैठी साथी ने दिखाया
कुछ वे सर जो सुपरविजन कर रहे थे बताया
दो चार व्याकरण और कुछ रिक्त स्थान.
रिजल्ट आने पर मैं पास हो गई थी
पासिंग मार्क्स मिले थे अंग्रेजी में
पर साल रद्द नहीं हुआ
उसके बाद तो कॉलेज में साहित्य ले दिन पर दिन उन्नति की सीढियॉ चढती गई
आज ऐसा लगता है अगर वह नकल न होती तो पढाई वही रूक जाती.
आज भी सुपरविजन करते समय वही याद आ जाता है
नकल करना अच्छी बात तो नहीं
पर क्या पता एक- दो रिक्त स्थान किसी के जीवन को पूर्ण कर दे
पास होने पर उसकी राह आसान हो जाएगी
आगे का रास्ता मिल जाएगा
फिर बुद्धि किसी की मोहताज नहीं होती
अगर सामर्थय है तो आगे बढेगा वरना
३५% में ही जिंदगी सिमट जाएगी
कोहरे को तो जाना ही है
घना कोहरा छाया हुआ
कुछ दिखाई नहीं दे रहा
दूर क्या पास का भी नहीं
क्या करें ,कैसे करें
मुश्किल में पड गया है जीवन
राह लंबी है ,आसान भी नहीं
बहुत से रोडे पडे हैं
उनको हटाना है ,रास्ता ढूढना है
इस धुंधलके को चीर आगे बढना है
यह कैसे संभव होगा
अचानक रोशनी कौंधी मन में
एक - एक कदम आगे बढे
धुंधलका अपने आप छटता जाएगा
राह अपने - आप निकलता जाएगा
क्या पता किसी दिन यह कोहरा पूरी तरह छट जाए
मंजिल प्राप्त हो जाय
कोहरा हमेशा कायम तो नहीं रहता
पर उसे तो छटना ही है
राह से हटना ही है
किसी में इतनी ताकत नहीं कि प्रकाश को रोक दे
कुछ समय के लिए हो सकता है पर हमेशा के लिए नहीं
हर रात की सुबह होती है
हर अंधेरे को समाप्त होना है
हर कुहासे को छटना भी जो है
क्योंकि जिंदगी को आगे जो बढना है
भोजन में मिठास भरने वाली का भी ख्याल रखे
कभी शीरा ,कभी सिवैया ,कभी गुलाब जाम
हर रोज भोजन में भरती में मिठास.
पर इस मिठास वाली के जीवन में भी मिठास कौन भरे
उसका ख्याल कौन रखे
दिन- रात मेहनत ,पसीने से लथपथ
बस दूसरों के लिए भोजन बनाने में जुटी
चेहरे पर तृप्ति के भाव देख तृप्त हो जाती
क्या जाने उसके लिए कुछ बचा या नहीं
या खुरचन पर ही संतुष्ट
रसोई की रानी है वह
अन्नपूर्णा कहलाती है
पर पेट तो उसके पास भी है
जिह्वा का स्वाद और मन तो उसका भी करता होगा
कुछ उसकी भी इच्छा - आंकाक्षा होगी
थाली परोसना और समेटना केवल उसके हिस्से में ही क्यों???
वह तो अपना कर्तव्य तन- मन- धन से करती है
दूसरों का भी तो कुछ कर्तव्य बनता है
कभी मीठा कभी नमकीन से भोजन को स्वादिष्ट बनाने वाली का भी ख्याल रखना है.
वह सही- सलामत रहेगी तो भोजन ही क्यों
जीवन में भी मिठास कायम रहेगी
Wednesday, 19 October 2016
ऐसा क्यों होता है किसी के जाने के बाद
ऐसा क्यों होता है ,जब कोई चला जाता है हमारे बीच से
तब हम सोचते हैं
काश ! ऐसा कर पाते
मन में टीस उठती है
पीडा और बेचैनी महसूस होती है
कुछ न कुछ छूट ही जाता है
जाने वाला अब उस दुनियॉ में चला गया है
जहॉ से वापस आना संभव नहीं
अब तो ऊपर जाने पर ही मुलाकात हो
वह भी शायद ,अगर दूसरा कोई जग हो तो
गिले- शिकवे दूर हो
जब तक हम धरती पर रहते हैं
एक- दूसरे से उलझते रहते हैं
बोलचाल बंद कर देते हैं
न जाने गुस्से में क्या - क्या कह देते हैं
जबकि ये सब अपने ही होते हैं
हम मन से उनका बुरा नहीं चाहते
उनको चोट लगती है पर दर्द हमें होता है
पर संसार तो संसार है
कर्म है ,बंधन है
यह सब करते - करते जाने - अंजाने न जाने क्या कुछ घटता रहता है
अगर हमें पता होता कि
कल की सुबह इस व्यक्ति से मुलाकात न होगी
तो हम सावधानी बरतते
जाने वाले की याद हमसे छूटती नहीं
किन्तु और परन्तु ,काश ऐसा- वैसा
में हम पडे रहते हैं
और यह सब तो होगा ही
साथ रहेगे
तो लडे - झगडेगे ,रूठेगे- चिल्लाएगे ,क्रोधित भी होगे
जीवन इसी का नाम है
पेड की डाली से टूटा पत्ता
पीले ,कुचले ,दबे पत्ते
जमीन पर पडे हैं
कभी यही पत्ते पेड की शोभा हुआ करते थे
लोगों को छाया दिया करते थे
आज डाली से टूट गए हैं ,झड गए है
महत्तव खत्म हो गया है
क्योंकि अब इनमें जान नहीं बची है
अब पेड से निर्वासित कर दिया है
पर देखा जाय तो अब भी यह उपयोगी है
इनसे किसी का चूल्हा जलेगा
किसी की ताप कर ठंडी भागेगी
कोई पत्तल - दोने बानाएगा
आखिरी पडाव तक यह पत्ता काम करेगा
जिंदगी के बाद भी
व्यर्थ तो कुछ भी नहीं जाएगा
बस कीमत समझना है
हर कण बहुमूल्य है
हर जीवन कीमती है
बस अपना दृष्टिकोण बदलना है
चाइनीज सामानों का बहिष्कार
आजकल सर्वत्र एक ही चर्चा
चीन के माल का बहिष्कार
ठीक भी है
दुश्मन को साथ देने वाले का सामान खरीद कर उसको फायदा क्यों पहुँचाए
साथ में यह सोचना भी है कि
चाइना का उत्पाद क्यों भारतीय बाजारों पर हावी हो गया है
हमारे उत्पादों में क्या कमी है??
स्वदेशी को क्यों नहीं तवव्जों दिया जा रहा है
विदेशी कंपनियॉ क्यों भारतीय बाजारों पर भारी पड रही है
इसका कारण कहीं हम तो नहीं??
सस्ता ,आर्कषक और अच्छा सामान अगर मिलता है तो ग्राहक पसन्द करेंगे
यह गुण बाबा रामदेव से सीखे
आज पतंजलि के प्रोडक्ट की बाजार में मांग है और तेजी से बढ भी रही है अच्छा ,शुद्ध और वाजबी दाम में मिल रहा है तो जनता पसन्द कर रही है
करोडो का टर्न ओवर है उनका
जबरदस्ती रोक लगाने से नहीं बल्कि अपने उत्पादों को अच्छा और सामान्य ग्राहक तक पहुँचाने की जरूरत है
अपने आप रोक लग जाएगी
प्रति स्पर्धा का जमाना है
एक पर एक फ्री का जमाना है
व्यापार का विस्तार करना है तो ग्राहक को भी खुश रखना होगा
राम के नाम पर राजनीति
जब- जब चुनाव का समय आता है
भगवान राम याद आने लग जाते हैं
जीतने पर फिर वह पॉच साल के वनवास पर चले जाते हैं
रानी कैकयी ने तो राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया था वह भी एक बार
बाद में पश्चाताप भी किया
पर इस कलयुग में तो हर पॉच वर्ष में वनवास
भगवान राम को अपने ही घर में जगह नहीं मिली
हॉ,उनके नाम पर राजनीति कर लोगों ने सत्ता में अवश्य अपनी जगह स्थापित कर ली है
सत्ता पाने पर भूला दिया जाता है
कौन राम , किसके राम ,कहॉ के राम
घर्मनिरपेक्ष राजनीति शुरू हो जाती है
सभी की धार्मिक भावनाओं का ख्याल जो रखना है
तो फिर एक धर्म के लोगों की भावनाओं से खिलवाड क्यों???
क्यों और लोग अपना दिल बडा करते
राम के नाम पर संग्रहालय बनाये जाने का प्रस्ताव मोदी सरकार का है
पर जन्मभूमी पर राममंदिर क्यों नहीं.
क्यों नहीं जन्मभूमी का मसला हल किया जाय
अपनी सत्ता को स्थापित करने से पहले मंदिर निर्माण कर भगवान राम को स्थापित करे
या फिर कोई राजनीति न करे
राम को ही भूल जाय
Sunday, 16 October 2016
जीवन की दूसरी पारी भी खेलनी है
स्वयं को ही स्वयं का निरीक्षण करने का समय आ गया
स्वयं को तराजू में तौलने का समय आ गया
पचास तक क्या खास किया
कौन - सा रास्ता चुना
किसको क्या दिया ,किससे क्या लिया
तराजू का कौन- सा पलडा भारी हुआ
क्या खोया ,क्या पाया
कौन साथ रह गए ,कौन साथ छोड गए
स्वयं को स्वयं में खोजने का समय आ गया
आज वाद- विवाद को छोडने का समय आ गया
अब शब्दों को अर्थ देने नहीं ,मौन रहने का समय आ गया
अपने ही शरीर के अंग साथ छोडने लगे
अब तो जीवन चलाने का समय आ गया
निर्झर और इंद्रधनुष को देख चुके
अब तो क्षितिज को देखने का समय आ चुका
संसार नश्वर है यह जानने का समय आ गया
अब तो न जाने कितना समय बचा है
जो न कर चुके करने का समय आ गया
समझदार होने का समय आ गया
क्रोध नहीं शांत रहने का समय आ गया
बच्चों को व्यवस्थित और खुश रखने का समय आ गया
अपनी सत्ता छोड दूसरों को देने का समय आ गया
अब तो पचास वसंत देख चुके
पतझड देखने का समय आ गया
अपने ही शरीर से स्वयं लडने का और समझाने का समय आ गया
जिम्मेदारी को छोडने का समय आ गया
पर मन तो वही है
कुछ छोडना नहीं चाहता
बचपन फिर से लगता है लौट आ रहा है
फिर से जीने का समय आ गया
पचास के बाद दूसरी पारी खेलने का समय आ गया
फिर से शुरूवात करनी है
और दूसरी पारी और धमाकेदार करनी है
World food day अन्नदान करें
अन्न का अपमान यानि ईश्वर का अपमान
पेट भर भोजन मिलना यह भी ईश्वर की मेहरबानी
इसी भोजन के लिए व्यक्ति क्या- क्या नहीं करता
लोगों के सामने हाथ फैलाता
अपने खून- पसीने को एक करता
बडी मुश्किल से कुछ लोग दो जून की रोटी जुटा पाते है
रोटी होती तो स्वयं में गोल है
पर सारे संसार को गोल - गोल नचाती है
इसी रोटी के चक्कर में न जाने कहॉ- कहॉ की खाक छानता है इंसान
अपने घर - गॉव ,परिवार को छोडता है रोटी कमाने के लिए
अपनो के लिए भोजन का इंतजाम करने के लिए
न जाने क्या- क्या सुनना पडता है और करना पडता है
पेट की आग बुझाने के लिए
निराला जी की भिक्षुक की पंक्तियॉ ---
" पेट- पीठ है एक ,चल रहा लकुटियॉ टेक "
या फिर मजदूरनी पर ---
"वह तोडती पत्थर मैंने देखा इलाहाबाद के पथ पर "
हर कोई भाग रहा है और उसका मुख्य कारण भोजन
पर एक विडंबना यह भी है कि
कुछ को भोजन का निवाला नहीं मिलता
तो दूसरी तरफ न जाने कितना खाना फेका जाता है
गोदामों में अनाज सडता है
शादी- ब्याह में तो अन्न की बर्बादी तो होती ही है
और आजकल के बुफे सिस्टम में तो और ज्यादा
लोग थालियॉ भर लेते हैं बाद में वह नालियों में जाता है
भोजन देने वाली को अन्नपूर्णा माना जाता है
किसान को अन्नदाता माना जाता है
रसोई की पूजा की जाती है
फिर यह अन्न रास्तों पर पडे मिल जाता है
भर पेट भोजन मिलना भी भाग्य की बात होती है
भूखे का पेट भरने को सबसे बडा पुण्य माना जाता है
एक ओर बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं
तो दूसरी तरफ ज्यादा खाने से बीमारियों के शिकार हो रहे हैं
हर जीव को भोजन मिलना ही चाहिए
हमें अगर ईश्वर ने दिया है तो हम भी कुछ तो दूसरों का पेट भरे
अन्नदान करे ,भूखे को भोजन कराए
और अन्न का अपमान तो बिल्कुल नहीं
अन्न फेकने के लिए नहीं
जीने के लिए जरूरी है
अन्न का सम्मान करें और हो सके तो अन्नदान भी करें.
Saturday, 15 October 2016
आ गया पचास , अब तो कर लो आराम
पार कर गया पचास ,अब तो कर लिया जाय आराम
बहुत कर ली भागम - भाग
बस अब तो लगाई जाय ,उस पर लगाम
बचपन से भागते ही रहे
पढाई ,परिवार ,कर्तव्य का वजन उठाते - उठाते
आधी जिंदगी बीत गई
काम तो लगा ही रहेगा
जब तक जिंदगी चलती रहेगी
अब दूसरों पर उनकी जिंदगी छोड
अपनी भी मनमानी कर ली जाय
कुछ शौक जो रह गए अधूरे
उनको भी पूरा कर लिया जाय
धूल जम चुकी पुस्तकों को झाड पढ लिया जाय
अब तो न किसी का डर न संकोच
सब कुछ है अपने हाथ़
जी भर खरिदारी कर ली जाय
वैसे ही बीमारियॉ आ चुकी है
अब तो थोडा व्यायाम कर लिया जाय
बहुत दे चुके पेट को तकलीफ
अब उसको थोडा आराम दे दिया जाय.
हाथ- पैर दे रहे जवाब
अब तो टेक्सी को दरवाजे पर बुला लिया जाय
भगवान को कर लिया जाय याद
कुछ हँस लिया जाय
कुछ बच्चों जैसा बन लिया जाय
अब तक तो सबको किया सलाम
अब दूसरों से सलाम ले लिया जाय
अब तक तो लिया सबसे आशिर्वाद
अब खुद भी आशिर्वाद के लिए हाथ उठा लिया जाय
जिंदगी को मन भर कर जी लिया जाय
बचपन को याद कर बुढापे का भी स्वागत कर लिया जाय
कुछ गलतियॉ की है उनको भी सुधार लिया जाय
रूठे हुए अपनों को मना लिया जाय
जिंदगी फिर से जी ली जाय
हर बच्चे का सम्मान करिए - Happy children's day
जमीन से उगने वाले हर तिनके को नमन करना चाहिए
कौन जाने कौन सा तिनका कब वृक्ष बन जाय
हर बच्चे को सम्मान दीजिए
कल कौन क्या बन जाय
विद्यार्थी से नेता बनी की याद
आओ फिर स्कूल चले ,बचपन की याद ताजा करे
वह मौज - धमाल ,मस्ती
वह सहेलियों संग गप्पे लडाना
वह पीछे की बेंच पर जाकर बैठना
कक्षा के बाहर दंडित हो खडे रहना
बास्केट से खाना निकालना ,झुंड बनाकर बैठना
कुछ अपना खाना ,बाकी दूसरो को देना
बिना कारण हँसना - खिलखिलाना
बारीश पर कोर्ट पर भीगना
टीचर्स डे ,फन फेयर जम कर मनाना
शिक्षिकाओं का सर पर हाथ
सहेलियों का वह साथ , न जाने कहॉ गुम हो गया
अब तो बस बच गई है उनकी याद
आज आई हूँ अपनी उसी पाठशाला में
छात्रा नहीं नेता हूँ मैं अब
पर बचपन तो बचपन ही होता है
संसद भवन कितना भी विशाल क्यों न हो
पाठशाला जैसी वह बात कहॉ
सहेलियों के साथ लडना - झगडना
और नेताओं के साथ वाद- विवाद
दोनों में जमीन - आसमान का फर्क
बचपन की सीख बनी युवावस्था की ढाल
पाठशाला में स्वच्छंद घूमने वाली बालिका
अपने क्षेत्र में घूम रही है
पाठशाला से a b c d और क ख ग घ का ककहरा
पढनेवाली अब धडल्ले से भाषण दे रही है
सब कुछ बदल गया पर नहीं बदली बचपन की याद
आज उसी बचपन को साझा करने आई हूँ
अपनी पाठशाला को सम्मान देने आई हूँ
बचपन को फिर जीने और याद करने आई हूँ
धन्यवाद करू कैसे
मैं कोई और नहीं आपकी वही नन्हीं छात्रा हूँ
Friday, 14 October 2016
मॉ जैसी कोई नहीं
मॉ कभी अपनी संतान में भेदभाव नहीं करती
पर यह भी सच है कि झुकाव कमजोर संतान की तरफ कुछ ज्यादा होता है
मॉ कभी बूढी नहीं होती और बच्चे कभी बडे नहीं होती
बच्चे हमेशा मॉ से आशा ही लगाए रहते हैं
ऑखें भले धुंधला गई हो
हाथ पैर कॉप रहे हो
पर फिर भी वह अपने बच्चों की खुशी के लिए
कॉपते और लरजते हाथों से पकवान जरूर बनाएगी
उनका इंतजार करेगी
उनके आने पर खुश हो जाती है
सारी थकावट भूल जाती है
आज भी उसे बच्चों की चिंता के साथ उनके बच्चों की भी चिंता रहती है
कभी उसकी भी चिंता कर लेनी चाहिए
उसे भी कभी पकवान बना कर दे
कभी उसकी भी कोई इच्छा पूरी कर दे
संतान केवल लेने के लिए नहीं
देने के लिए भी हो
आदर ,सम्मान के साथ
अपनी जन्म दात्री के प्रति भी तो कुछ कर्तव्य है
कभी उसने दिया है अब आपकी बारी है
ना कहना इतना आसान नहीं
ना कहना इतना आसान नहीं
जिंदगी में समझौते की आदत जो पड गई है
बचपन से लेकर बुढापे तक समझौता ही तो
घर से लेकर बाहर तक
सबको हर कुछ नहीं मिलता
यही सिखाया जाता है
दबना और सब्र करना चाहिए
किसी की बात पर ध्यान नहीं देना
इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देना
कभी परिस्थिती के कारण
कभी अपनो के खातिर
बचपन में दोस्तों के साथ समझौता
पाठशाला में ,पडोसियों के साथ
विवाह होने पर समझौता
बच्चों और परिवार के साथ समझौता
कार्यस्थल पर समझौता
कभी ऐसा क्यों नहीं होता कि यह हमारी इच्छा है
हम अपने जीवन को अपने तरीके से जीएगे
यह हमारा अधिकार है
बस दूसरों की मर्जी से जीवन चलाते हैं
परिवार क्या कहेगा??
लोग क्या कहेंगे ??
समाज क्या कहेगा !??
इसी ताने- बाने में जिंदगी उलझती जाती है
हम डरते रहते हैं
कहीं अकेले न पड जाय
ना कहने की हिम्मत नहीं होती
बचपन ,युवावस्था ,वृद्धावस्था के पडाव पर चलते
न जाने कितने समझौते करता है इंसान
कभी प्यार के खातिर तो कभी मजबूरी और लाचारी में
जिसने जिंदगी भर समझौता ही किया हो
वह आवाज उठाने की हिम्मत कैसे कर सकता है
दोस्त ,पडोसी ,रिश्तेदार ,साथ काम करने वाले सहकर्मी
बॉस और मालिक
सबके साथ रहना है
सामाजिक प्राणी जो है इंसान
इस ना और हा के चक्कर में उलझा रहता है इंसान
ना कहना इतना आसान नहीं